आर्ष विद्या समाज के स्थापक श्री के.आर. मनोज का, शिवरात्रि के उपलक्ष्य में संदेश - भाग 3
सनातन धर्म सीधे प्राधिकृत आर्ष गुरु परंपराओं से सीखना चाहिए। प्रत्यक्ष में गुरुमुख से सुनकर (श्रवण द्वारा) सीखे जाने वाले वेदों को श्रुति कहा जाता है। वेदोपनिषद, इतिहास, दार्शनिक कृतियाँ, ऋषियों द्वारा रचे गए दिव्य स्तोत्र – ये सब प्रामाणिक हैं और सही हैं। इनमें कोई मिलावट या मिथ्या नहीं होती। और यदि होती भी है, तो उनके संशोधन का पूर्ण अधिकार भी ऋषियों ने प्रख्यापित किया है। सत्य के प्रति यही प्रतिबद्धता सनातन धर्म का महत्व है। आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य ही सत्य की खोज, अथवा सत्यान्वेषण है।
पौराणिक ग्रंथों में ग्रंथ-दोष हो सकते हैं। मानवीय हस्तक्षेप, जोड़ना (प्रक्षेप), काटना, बदलना आदि इनमें सम्मिलित हो सकते हैं। कुछ भी सीखने के लिए स्वाध्याय की रीति अपनानी चाहिए। स्वाध्याय का क्रम इस प्रकार से है – श्रवण, मनन (मंथन) और निदिध्यासन। हमारी समस्त अवनति का कारण स्वाध्याय संप्रदाय का नष्ट होना है। जो भी तत्व प्रमाणों के विपरीत हों, उनका निषेध या त्याग करने का आह्वान भी शास्त्रों में है। ये प्रमाण कई प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष (इंद्रियानुभवजन्य, शास्त्र सम्मत), अनुमान (युक्ति पर आधारित), शब्द (आप्तवचन, अंतर्दर्शन, श्रुति)। पुराण कतई प्रामाणिक नहीं होते। ये समाज में प्रचलित नैतिक मूल्यों का कथारूप मात्र हैं जिनका संकलन संस्कृत में किया गया है। इनमें अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। इसलिए इनमें जो भी त्रुटियां हैं, चाहे जिसने भी लिखी हों, त्रुटियों को अमान्य घोषित करने में पुनर्विचिन्तन की आवश्यकता नहीं है।
शिवरात्रि के संदर्भ में प्रचलित एक कथा का उदाहरण देखते हैं। “कालकूट विष आमाशय में न पहुंचे, इस हेतु देवी पार्वती ने महादेव के गले को दबोच लिया! विष शरीर में न पहुंचे इसके लिए सारी रात जागती रहीं। इसे कहते हैं शिवरात्रि।” ऐसी निरर्थक कहानियाँ शिवरात्रि के संदर्भ में फैलाई जाती हैं। ईश्वर की महिमा को बिना समझे इस प्रकार की बचकानी कहानियों का प्रचार न करें, विवेकशील बनें। इस पुरानी कहानी की कुछ मूर्खताओं और युक्तिहीनता का विश्लेषण करते हैं:
शिवलिंग की उपासना
पुराण प्रामाणिक नहीं होते। कई पुराणों की रचना उस समय हुई जब भारत अपक्षय के मार्ग पर था और उसकी गरिमा घटती जा रही थी। उनमें अच्छा और बुरा – दोनों मिला हुआ है।
यदि आप स्वाध्याय संप्रदाय को अपनायें तो आप में त्याज्य- ग्राह्य बुद्धि उत्पन्न होगी। यह सामान्य तत्व है कि जो भी उक्ति आर्ष गुरु परंपरा के दिव्य ज्ञान (वेदों) के विपरीत हो, वह त्याज्य है।
इसी प्रकार शिवरात्रि के आचरण के नाम पर मंदिरों में ऊँचे स्वर में मंत्रों का जाप करना, यंत्रों के उपयोग से कोलाहलपूर्ण वातावरण बनाना, जिससे लोगों को कष्ट होता है – यह सब हतोत्साहित करना चाहिए। मंदिरों में शान्त परिसर का होना अत्यावश्यक है। भक्तजन अपने अभीष्ट मंत्र का जप या प्रार्थना एकाग्रता से कर सकें, इसके लिए अनुकूल परिस्थिति बनाना वांछित है। सुंदर भजन भक्ति का वातावरण बनाते हैं। लेकिन मंत्रों का प्रभाव अलग है। मंत्रों की भाषा निगूढ़ होती है और ये रहस्य-भाषण हैं।
मंत्र मनन के लिए बनाए गए हैं। मंत्र ऐसे जपते हैं कि पास बैठा व्यक्ति ना सुन पाए और मंत्र का तत्व साधक में घुल जाए।
अतः सभी अनुष्ठानों का आचरण अर्थ समझकर इस प्रकार हो कि उससे किसी को कष्ट न हो। अन्यथा किसी की साधना को भंग करने का दोष हम पर लगेगा। किसी और की शांति भंग करना भी सनातन धर्म के अनुसार वर्ज्य है।व्यक्ति या समाज को कष्ट या दोष पहुंचाना दुराचार कहलाएगा।
महाशिवरात्रि का आचरण किस प्रकार करना चाहिए:
(आर्ष गुरु परंपरा द्वारा निर्दिष्ट योगविद्या विधि से परमेश्वर उपासना साधना करने के इच्छुक सज्जन अपना नाम, पता, व्हाट्सएप नंबर, ईमेल आदि 8943006350 / 7356613488 पर भेजें। )