आर्ष विद्या समाज के स्थापक आचार्य श्री मनोज जी का शिवरात्रि संदेश - भाग 2
श्री परमेश्वर के तत्व नाम हैं – परमशिव, शिव, शिवम आदि विशेषण। परम शिव शब्द परमेश्वर के दो तत्वों का द्योतक है- प्रथम, वह निर्गुण ब्रह्म जो प्रपंच, काल, जीव, देवता, भगवान, आदि सृष्टियों के सृजन के पूर्व विद्यमान थे और द्वितीय, वे सगुण ब्रह्म जो विश्व की उत्पत्ति के कारक है।

5.मंगलकारी है, अतः शिव शब्द मंगल सूचक है।
ऋषियों द्वारा दिए गए व्याख्यानों में जो शिव हैं; वे शिव जिनको श्री नारायण गुरुदेव ने “हमारे शिव” का विशेषण ; आर्ष गुरु परंपराओं के और सनातन धर्म के परमशिव – कौन है?
वेदांत, योग, तंत्र, सिद्धांत, आदि सभी पराविद्याओं में (आध्यात्मिक विद्याओं में) परम तत्व परमशिव हैं। योगविद्या के अनुसार जब सहस्रार पद्म में विराजित परमशिव का साक्षात्कार हो, तभी मोक्ष प्राप्ति होती है। (“छह सीढ़ियाँ चढ़कर / षड् चक्रों को भेदकर जहाँ पहुंचो, वहाँ शिव के दर्शन होंगे, शिव शंभो” – मलयालम के प्रसिद्ध कवि पूंतानम नंबूदिरि की शिवस्तुति से लिया गया वाक्य है।) तंत्र विद्या के छत्तीस तत्वों में पहला तत्व है शिव तत्व। सिद्धांत मार्ग में भी परम तत्व शिव ही हैं। वेदांत में शिवोहम् की अवस्था की प्राप्ति को मोक्ष बताया गया है।
यह ध्यान देने की बात है कि उपर्युक्त सभी मार्गों के परम तत्व के रूप में परमशिव का ही उल्लेख है। पर ऐसा एक समय आया जब अज्ञानी व्यक्तियों की अज्ञानतापूर्ण कृतियों में परमेश्वर के इस तत्वनाम को मात्र त्रिमूर्तियों में से एक के रूप में प्रस्तुत और प्रचलित किया गया। परमेश्वर के पर्यायवाची ईश्वरनामों (उदा : शिव, देवी, विष्णु, ब्रह्मा, आदि) को न केवल मनुष्यशरीर-रूपी बना दिया बल्कि उनकी भावना में उत्पन्न बालिश मूर्खतापूर्ण कहानियां भी उन नामों के साथ जोड़ दी गईं। यहां तक कि उन्हें मनुष्यों की तुलना में, और कभी-कभी पशुओं की तुलना में भी नीचा दिखाया गया। यह सच है कि पुराणों का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। यही सारांश है श्री नारायण गुरुदेव की अर्थपूर्ण उक्ति का जब उन्होंने कहा कि – मैं ने तुम्हारे शिव संकल्प को प्रतिष्ठापित नहीं किया है। मैं ने प्रतिष्ठित किया है हमारे (सिद्धों की परंपरा के) शिव संकल्प को।
सिद्ध महर्षियों द्वारा दिए गए निर्वचन क्या हैं?
यस्य आत्मनो अन्य: ईश्वरो नास्ति, निराश्रय: निरामयश्च भूत्वा समस्तलोकाय सदा शिवं (मङ्गलं, परमश्रेय:) दत्वा प्रशोभितो परमज्योति:, सच्चिदानन्दस्वरूप: सनातन: परमेश्वर: एक एव परं ब्रह्म तत्वम्। परमशिव:।
शिवलिंग रूपी प्रतीक की उपासना
परमेश्वर तत्व अकाय, निराकार, निरामय, अनीश्वर और निराश्रय है। अवयव या अंग-रहित शिवलिंग के माध्यम से इन्हीं तत्वों की प्रतीकात्मक उपासना की जाती है। यहां तक कि ऋषियों की मान्यता है की सभी देवी-देवता और ईश्वर प्रतीक स्वयं परमेश्वर के उपासक हैं। अनंतनाग पर शयन करने वाले श्री पद्मनाभ की पुरातन मूर्तियों में उन्हें शिवलिंग की उपासना करते हुए दर्शाया गया है। पुरुष रूप में अवतरित बद्रीनाथ (बद्रीनारायण), श्री राम, और श्री कृष्ण स्वयं परमेश्वर के भक्त थे जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण और व्यास महाभारत में है। रामेश्वर, रामनाथ, गोपेश्वर, कृष्णेश्वर – ये सभी नाम परमशिव की स्तुति के लिए प्रयुक्त होते हैं। शंकराचार्य और श्री नारायण गुरु – दोनों ही ने लिंगाष्टक की रचना की है।

जैसा कि पहले सूचित किया था, लोक में माया का प्रभाव हटाकर, ज्ञान प्रदान करने के लिए जीवों के सामने प्रकट होने वाले विश्वनाथ परमेश्वर के अवतारों को स्मरण करने का दिवस है शिवरात्रि। परमशिव का प्रथम आविर्भाव कब हुआ? कारण-स्थूल-सूक्ष्म, इन तीन लोक (त्रिभुवन) में सबसे उन्नत स्थान पर स्थित है कारणलोक। कारणलोक के निवासियों को भगवान कहते हैं। इन्हीं भगवानों के समक्ष परमशिव ने प्रथम बार कारणज्योतिर्लिंग स्वरूप (दिव्य तेजस रूप) लिया। लोकमाया को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश प्रज्वलित करना इस प्रत्यक्ष ज्योति दर्शन का उद्देश्य था। अनेक ऋषियों ने सूचित किया है कि स्थूल-सूक्ष्म-कारण लोकों से अतीत परमेश्वर नारायण ऋषि और ब्रह्मा ऋषि के सामने प्रकट हुए। ऋषिगणों के अनुसार, प्रकृति की माया को हटाकर पूर्ण ज्ञान देकर मोक्ष प्रदान करने के लिए, पहले अग्निशैल या ज्योतिर्लिंग के रूप में श्री परमेश्वर का आविर्भाव हुआ। श्री शंकराचार्य और श्री नारायणगुरु समेत कई ऋषियों ने दिव्या स्तोत्रों में इस संभव का परामर्श किया है। इस शुभ मुहूर्त के स्मरणार्थ भक्त शिवरात्रि मानते हैं।
दिव्य शरीर स्वीकार करना
ज्योतिलिंग रूप में आविर्भाव के बाद, श्री परमेश्वर कारणशरीर में भी प्रकट हुए। कारणलोक में वे महारुद्र और सूक्ष्म लोक में शिव शंकर ऋषि, और स्थूललोक में भूमि पर आदियोगी आदिनाथ (दक्षिणामूर्ति) के दिव्य देह स्वीकार किए। विविध गुरु परंपराएं यह प्रस्तावित करती हैं की तीनों लोकों को सनातन धर्म का उपदेश देने के लिए परमेश्वर ने इन दिव्या देहों को स्वीकार किया। शरीर की परिधियां और लोक नियम – इन सबसे अछूते श्री परमेश्वर, बिना माता-पिता के,अपनी शक्ति के बल पर शरीर स्वीकार करते हैं। (उदाः नरसिंह, गणपति आदि दिव्य देह हैं।) माया शरीर के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं – दिव्य देह, प्रत्यक्ष रूप, भव शरीर, विभूति काय, लिंग शरीर, लीला रूप, इत्यादि।
इस पृथ्वी पर आर्ष गुरु परंपरा के माध्यम से लोककल्याण के लिए मानव जाति को सनातन धर्म (वेद) देने के लिए श्री परमेश्वर द्वारा मानवरूप में प्रकट होने का दिन है- ऐसा भी कहा गया है। परमेश्वर के मानवरूप को आदिनाथ/दक्षिणामूर्ति इत्यादि नामों से पुकारते हैं। यह ध्यान श्लोकों के अनुसार चित्रित शिवरूप है। (परमेश्वर का प्रतीक अवयवरहित शिवलिंग है।) वल्कल और बाघ की खाल पहने जटाधारी के रूप में ऋषियों के सामने प्रकट होने वाले श्री परमेश्वर का प्रत्यक्ष मानव रूप परमगुरु दक्षिणामूर्ति ऋषि हैं।
इसका पाठभेद भी है-
इस ध्यान श्लोक में जिसका वर्णन किया गया है, वह अकाय, निराकार और निरवयव परमेश्वर तत्व का मानव प्रत्यक्ष रूप है। योग परंपरा में आदिनाथ के रूप में, वेदान्त परंपरा में दक्षिणामूर्ति के रूप में, तंत्र परंपरा में सदाशिव ऋषि, शिव ऋषि और शिवशंकर ऋषि के नाम से और सिद्धान्त परंपरा में स्वच्छंदनाथ, श्रीकण्ठरुद्र और नीलकण्ठरुद्र के नाम से इस प्रत्यक्ष मानव रूप की स्तुति की जाती है। श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र महर्षि के रूप में और भक्तजनों द्वारा कैलासनाथ के रूप में इसकी पूजा की जाती है। श्री परमेश्वर के इस प्रत्यक्ष मानव रूप ने भूमि पर जिस जगह आकर मानव जाति को मार्गदर्शन प्रदान किया, उस स्थान के स्मरणार्थ कैलास तीर्थ यात्रा भी शुरू हुई।
यह परम्परा है कि सदाशिवमूर्ति से पंचमुख साधना सम्प्रदाय (तत्पुरुषं, अघोरं, सद्योजातं, वामदेवं, ईशानं) का उद्गम हुआ।
वह वैद्यनाथ/ वैद्येश्वर/वैत्तीश्वर हैं, जिन्होंने 18 सिद्धों में से धन्वंतरि और अगस्त्य महर्षि को प्रेरित किया। उन्होंने परशुराम को धनुर्वेद और अगस्त्य महर्षि को मर्मविद्या सिखाई। (केरल में कलरी (अखाडे) हैं जिनमें दक्षिण के अखाडों में अगस्त्य की परंपरा और उत्तर में परशुराम के संप्रदाय का अनुसरण किया जाता है। कलरी के अखाडे में छह आधार/सीढ़ियों वाले चबूतरे पर शिवलिंग को स्थापित कर उपासना करने की परंपरा आज भी है।) वह नटराज हैं – नृत्य, वाद्य, नाट्य और संगीत की कलाओं के स्वामी। उन्होंने महेश्वर सूत्र के माध्यम से पाणिनि को संस्कृत व्याकरण ग्रंथ रचना के लिए और तमिल भाषा के अध्ययन के लिए अगस्त्य को प्रेरित किया।
शिवरात्रि का महत्व:
(शेष भाग अगले अध्याय में)