मुख्यमंत्री के आलोचनात्मक वक्तव्य - तीसरा लेख
मुख्यमंत्री के विचारों में स्वागत योग्य कई सुधार हैं जिनका मैंने अपने दूसरे लेख में उल्लेख किया था। महात्मा गांधी पर श्री नारायण गुरु देव के प्रभाव और काक्किनाडा कांग्रेस सम्मेलन में अस्पृश्यता-उन्मूलन प्रस्ताव पेश करने के पीछे गुरु देव के योगदान का उल्लेख उन्होंने किया है। टी.के.माधवन की भूमिका भी उन्होंने स्वीकार की है।

लेकिन मुख्यमंत्री के कुछ विचारों से मैं सहमत नहीं हो सकता। इन आलोचनाओं पर ध्यान दें।
(1) “श्री नारायण गुरु सनातन धर्म के प्रवक्ता या प्रचारक नहीं थे, बल्कि वे एक संन्यासी थे जिन्होंने उस धर्म को विखण्डित करके एक नए युग के लिए एक नवीन धर्म की घोषणा की। भारत में तीन प्रकार की विचारधाराएँ रहीं हैं – सनातन धर्म का पालन करनेवाले, उसके प्रति संदेह रखनेवाले और उसे चुनौती देनेवाले। इनमें से तीसरी धारा के प्रतिनिधि थे गुरु देव।”
(यह वक्तव्य ही आज के लेख में चर्चा का विषय है।)
श्री नारायण गुरु की महानता को उजागर करने के लिए मुख्यमंत्री ने ऐसा कहा है, तो मैं इस का कोई विरोध नहीं करता। लेकिन अगर मुख्यमंत्री यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि गुरु का यह एकत्वदर्शन और मानवतावादी दृष्टिकोण सनातन धर्म में नहीं है, या इससे पहले किसी भी आर्ष गुरु ने ऐसा नहीं कहा है, तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। इसके कारणों को आगे के लेखों में विस्तार से समझाया जा सकता है।
इन सभी आरोपों का क्रमवार उत्तर देने और विस्तारपूर्वक विश्लेषण करने का प्रयास किया जाएगा। हालांकि, इस लेख श्रृंखला का उद्देश्य केवल मुख्यमंत्री के बयानों का खंडन करना नहीं है। बल्कि, इसका मुख्य उद्देश्य उन गलत धारणाओं और दुष्प्रचारों को तथ्यात्मक और प्रमाणिक आधार पर निरस्त करना है, जो आज आम जनता के बीच गहराई से फैल चुके हैं। सत्य की खोज में रुचि रखने वाले सभी लोगों का इस चर्चा में स्वागत है। हम विभिन्न विचारों और सवालों का उत्तर देने के लिए तैयार हैं और स्वस्थ आलोचनाओं का भी सम्मानपूर्वक स्वागत करते हैं।

“क्षयात् त्रायते इति क्षेत्र:” (जो व्यक्ति और समाज को हर प्रकार के कष्टों से मुक्त करता है, वही मंदिर है) – यही ऋषि धर्म का आदेश है। गुरु ने इन सभी को इसी सिद्धांत के अनुरूप योजनाबद्ध रूप से विकसित किया।
मंदिरों के आस-पास बागवानी, पुस्तकालय, विद्यालय, और उद्योग-रोजगार के संस्थान स्थापित किए। जाति-शुद्धि के बजायउन्होंने समाज और व्यक्तियों की स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित किया और इसके लिए स्नानागार (कुळिप्पुरा) का निर्माण किया।
कुछ प्रश्न उठते हैं!
कम से कम इसे ‘सनातन धर्म नवोत्थान’ या ‘हिंदू धर्म सुधार’ के रूप में संदर्भित किया जा सकता था।
लेकिन इसके विपरीत, उन्होंने ऐसा कहा जैसे सनातन धर्म और उसके सिद्धांतों का पूरी तरह निराकरण कर देना चाहिए। सच्चाई यह है कि नवोत्थान के इन महान ऋषियों—श्री नारायण गुरु सहित—ने कभी भी इस प्रकार के विचारों का समर्थन नहीं किया। इस प्रकार का कथन उनके महान और पवित्र जीवन का अपमान करने के समान है। जाति व्यवस्था की अमानवीयता को स्वयं झेलने के बावजूद, इन गुरुओं ने कभी यह नहीं माना, कहा, या प्रचार किया कि इसके लिए सनातन धर्म जिम्मेदार है। न ही उन्होंने सनातन धर्म का निराकरण किया , न ही उसे त्याग दिया। इसके विपरीत, उन्होंने इस प्रकार की भ्रांतियों को ठोस प्रमाण और तर्क के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया।

(जारी रहेगा)