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शिवरात्रि संदेश – भाग 2

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आर्ष विद्या समाज के स्थापक आचार्य श्री मनोज जी का शिवरात्रि संदेश - भाग 2
श्री परमेश्वर का तत्व नाम – परमशिव
 श्री परमेश्वर के अनगिनत पर्याय हैं जिनका चार विभागों में संकलन किया जा सकता है तत्व नाम, अनन्य नाम, अव्यय नाम, और विभूति नाम।

श्री परमेश्वर के तत्व नाम हैं – परमशिव, शिव, शिवम आदि विशेषण। परम शिव शब्द परमेश्वर के दो तत्वों का द्योतक है- प्रथम, वह निर्गुण ब्रह्म जो प्रपंच, काल, जीव, देवता, भगवान, आदि सृष्टियों के सृजन के पूर्व विद्यमान थे और द्वितीय, वे सगुण ब्रह्म जो विश्व की उत्पत्ति के कारक है।

◼️कौन है परमशिव?
शिव शब्द का अर्थ क्या है ? अनेक व्याख्यानों में कुछ प्रस्तुत हैं –
1. “शुद्धत्वार्थु शिवः प्रोक्तः” पवित्रता अथवा शुद्धता शिव कहलाता है।
2. “शोभनत्वात् शिवः ” – प्रकाश स्वरूपी होने को शिव कहते हैं।
3. ” वष्टीति शिव:” – जो सर्वव्यापी है वह शिव है।
4. “शेते अस्मिन् सर्वमिति शिव: ” – शिव वह है जिसमें सारा जगत बसता है।

5.मंगलकारी है, अतः शिव शब्द मंगल सूचक है।

ऐसी कितनी ही परिभाषाएं हैं?!

ऋषियों द्वारा दिए गए व्याख्यानों में जो शिव हैं; वे शिव जिनको श्री नारायण गुरुदेव ने “हमारे शिव” का विशेषण ; आर्ष गुरु परंपराओं के और सनातन धर्म के परमशिव – कौन है?

वेदांत, योग, तंत्र, सिद्धांत, आदि सभी पराविद्याओं में (आध्यात्मिक विद्याओं में) परम तत्व परमशिव हैं। योगविद्या के अनुसार जब सहस्रार पद्म में विराजित परमशिव का साक्षात्कार हो, तभी मोक्ष प्राप्ति होती है। (“छह सीढ़ियाँ चढ़कर / षड् चक्रों को भेदकर जहाँ पहुंचो, वहाँ शिव के दर्शन होंगे, शिव शंभो” – मलयालम के प्रसिद्ध कवि पूंतानम नंबूदिरि की शिवस्तुति से लिया गया वाक्य है।) तंत्र विद्या के छत्तीस तत्वों में पहला तत्व है शिव तत्व। सिद्धांत मार्ग में भी परम तत्व शिव ही हैं। वेदांत में शिवोहम् की अवस्था की प्राप्ति को मोक्ष बताया गया है।

यह ध्यान देने की बात है कि उपर्युक्त सभी मार्गों के परम तत्व के रूप में परमशिव का ही उल्लेख है। पर ऐसा एक समय आया जब अज्ञानी व्यक्तियों की अज्ञानतापूर्ण कृतियों में परमेश्वर के इस तत्वनाम को मात्र त्रिमूर्तियों में से एक के रूप में प्रस्तुत और प्रचलित किया गया। परमेश्वर के पर्यायवाची ईश्वरनामों (उदा : शिव, देवी, विष्णु, ब्रह्मा, आदि) को न केवल मनुष्यशरीर-रूपी बना दिया बल्कि उनकी भावना में उत्पन्न बालिश मूर्खतापूर्ण कहानियां भी उन नामों के साथ जोड़ दी गईं। यहां तक कि उन्हें मनुष्यों की तुलना में, और कभी-कभी पशुओं की तुलना में भी नीचा दिखाया गया। यह सच है कि पुराणों का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। यही सारांश है श्री नारायण गुरुदेव की अर्थपूर्ण उक्ति का जब उन्होंने कहा कि – मैं ने तुम्हारे शिव संकल्प को प्रतिष्ठापित नहीं किया है। मैं ने प्रतिष्ठित किया है हमारे (सिद्धों की परंपरा के) शिव संकल्प को।

सिद्ध महर्षियों द्वारा दिए गए निर्वचन क्या हैं?

को वा परमशिव:?

यस्य आत्मनो अन्य: ईश्वरो नास्ति, निराश्रय: निरामयश्च भूत्वा समस्तलोकाय सदा शिवं (मङ्गलं, परमश्रेय:) दत्वा प्रशोभितो परमज्योति:, सच्चिदानन्दस्वरूप: सनातन: परमेश्वर: एक एव परं ब्रह्म तत्वम्। परमशिव:।

निराश्रय (स्वयं के आश्रय के अलावा अन्य किसी आश्रय पर जो निर्भर न हो), निरीश्वर (जिसका स्वयं के अतिरिक्त अन्य कोई ईश्वर/नाथ /पति न हो – निरीश, अनीश्वर, अनीश) , निरामय , विश्वोत्पत्ति के पहले और उसके बाद भी सदैव मंगलकारी शिव रूप में प्रकाशमान सदाशिव ( शिव अर्थात तीन लोकों के सृजन के पूर्व भी परमज्योति सच्चिदानंद स्वरूपी बनकर, सर्वत्र आदिकारण बनकर बसनेवाला परब्रह्म चैतन्य।) सदाशिव, शिव केवलं, रूद्रत्वम्, आसीत् -निर्गुण ब्रह्म। जब लोक, काल, जीव आदि का सृजन हुआ तो समस्त लोकों और जीवो में सदैव मंगल, कल्याण, शुभ, हित बरसाकर दैदीप्यमान हुए सगुण ब्रह्म मूर्ति -सांबशिव। नित्य शुद्ध- बुद्ध-मुक्त
(मुण्डक भाष्य पृष्ठ 84, शंकराचार्य) (स च भगवन् नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव अपि सन् –
गीता भाष्य पृष्ठ 14 शंकराचार्य) परंज्योति सच्चिदानंद स्वरूपी सनातन और परमेश्वर के एकपरब्रह्म तत्व हैं परम शिव।

◼️शिवलिंग रूपी प्रतीक की उपासना

परमेश्वर तत्व अकाय, निराकार, निरामय, अनीश्वर और निराश्रय है। अवयव या अंग-रहित शिवलिंग के माध्यम से इन्हीं तत्वों की प्रतीकात्मक उपासना की जाती है। यहां तक कि ऋषियों की मान्यता है की सभी देवी-देवता और ईश्वर प्रतीक स्वयं परमेश्वर के उपासक हैं। अनंतनाग पर शयन करने वाले श्री पद्मनाभ की पुरातन मूर्तियों में उन्हें शिवलिंग की उपासना करते हुए दर्शाया गया है। पुरुष रूप में अवतरित बद्रीनाथ (बद्रीनारायण), श्री राम, और श्री कृष्ण स्वयं परमेश्वर के भक्त थे जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण और व्यास महाभारत में है। रामेश्वर, रामनाथ, गोपेश्वर, कृष्णेश्वर – ये सभी नाम परमशिव की स्तुति के लिए प्रयुक्त होते हैं। शंकराचार्य और श्री नारायण गुरु – दोनों ही ने लिंगाष्टक की रचना की है।

◼️शिवरात्रि का रहस्य
 

जैसा कि पहले सूचित किया था, लोक में माया का प्रभाव हटाकर, ज्ञान प्रदान करने के लिए जीवों के सामने प्रकट होने वाले विश्वनाथ परमेश्वर के अवतारों को स्मरण करने का दिवस है शिवरात्रि। परमशिव का प्रथम आविर्भाव कब हुआ? कारण-स्थूल-सूक्ष्म, इन तीन लोक (त्रिभुवन) में सबसे उन्नत स्थान पर स्थित है कारणलोक। कारणलोक के निवासियों को भगवान कहते हैं। इन्हीं भगवानों के समक्ष परमशिव ने प्रथम बार कारणज्योतिर्लिंग स्वरूप (दिव्य तेजस रूप) लिया। लोकमाया को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश प्रज्वलित करना इस प्रत्यक्ष ज्योति दर्शन का उद्देश्य था। अनेक ऋषियों ने सूचित किया है कि स्थूल-सूक्ष्म-कारण लोकों से अतीत परमेश्वर नारायण ऋषि और ब्रह्मा ऋषि के सामने प्रकट हुए। ऋषिगणों के अनुसार, प्रकृति की माया को हटाकर पूर्ण ज्ञान देकर मोक्ष प्रदान करने के लिए, पहले अग्निशैल या ज्योतिर्लिंग के रूप में श्री परमेश्वर का आविर्भाव हुआ। श्री शंकराचार्य और श्री नारायणगुरु समेत कई ऋषियों ने दिव्या स्तोत्रों में इस संभव का परामर्श किया है। इस शुभ मुहूर्त के स्मरणार्थ भक्त शिवरात्रि मानते हैं।

दिव्य शरीर स्वीकार करना
ज्योतिलिंग रूप में आविर्भाव के बाद, श्री परमेश्वर कारणशरीर में भी प्रकट हुए। कारणलोक में वे महारुद्र और सूक्ष्म लोक में शिव शंकर ऋषि, और स्थूललोक में भूमि पर आदियोगी आदिनाथ (दक्षिणामूर्ति) के दिव्य देह स्वीकार किए। विविध गुरु परंपराएं यह प्रस्तावित करती हैं की तीनों लोकों को सनातन धर्म का उपदेश देने के लिए परमेश्वर ने इन दिव्या देहों को स्वीकार किया। शरीर की परिधियां और लोक नियम – इन सबसे अछूते श्री परमेश्वर, बिना माता-पिता के,अपनी शक्ति के बल पर शरीर स्वीकार करते हैं। (उदाः नरसिंह, गणपति आदि दिव्य देह हैं।) माया शरीर के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं – दिव्य देह, प्रत्यक्ष रूप, भव शरीर, विभूति काय, लिंग शरीर, लीला रूप, इत्यादि।
इस पृथ्वी पर आर्ष गुरु परंपरा के माध्यम से लोककल्याण के लिए मानव जाति को सनातन धर्म (वेद) देने के लिए श्री परमेश्वर द्वारा मानवरूप में प्रकट होने का दिन है- ऐसा भी कहा गया है। परमेश्वर के मानवरूप को आदिनाथ/दक्षिणामूर्ति इत्यादि नामों से पुकारते हैं। यह ध्यान श्लोकों के अनुसार चित्रित शिवरूप है। (परमेश्वर का प्रतीक अवयवरहित शिवलिंग है।) वल्कल और बाघ की खाल पहने जटाधारी के रूप में ऋषियों के सामने प्रकट होने वाले श्री परमेश्वर का प्रत्यक्ष मानव रूप परमगुरु दक्षिणामूर्ति ऋषि हैं।

शांतं पद्मासनस्थं शशिधरमकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षभागे वहन्तं
नागं पाशं च घण्टां प्रलयहुतवहं सांकुशं वामभागे सर्वालंकारदीप्तं (नानालंकार दीप्त) स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि।
अर्थ: हम शांत और पद्मासन में बैठे हुए, चंद्रमा से सजे हुए, पांच मुख वाले, तीन नेत्र वाले, शूल, वज्र और खड्ग धारण किए हुए, दक्षिण हाथ में नाग और पाश और घंटा धारण किए हुए, प्रलय के अग्नि को वहन करने वाले और वाम भाग में अंकुश धारण किए हुए, सभी अलंकारों से दीप्त, स्फटिक माणिक्य के समान, पार्वती के पति दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करते हैं।

इसका पाठभेद भी है-

शान्तं पद्मासनस्थं शशिधरमकुटं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं ।
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षिणाङ्गे वहन्तम् ।
नागं पाशं च घण्टां डमरुकसहितं साङ्कुशं वामभागे ।
नानालङ्कारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ।।

इस ध्यान श्लोक में जिसका वर्णन किया गया है, वह अकाय, निराकार और निरवयव परमेश्वर तत्व का मानव प्रत्यक्ष रूप है। योग परंपरा में आदिनाथ के रूप में, वेदान्त परंपरा में दक्षिणामूर्ति के रूप में, तंत्र परंपरा में सदाशिव ऋषि, शिव ऋषि और शिवशंकर ऋषि के नाम से और सिद्धान्त परंपरा में स्वच्छंदनाथ, श्रीकण्ठरुद्र और नीलकण्ठरुद्र के नाम से इस प्रत्यक्ष मानव रूप की स्तुति की जाती है। श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र महर्षि के रूप में और भक्तजनों द्वारा कैलासनाथ के रूप में इसकी पूजा की जाती है। श्री परमेश्वर के इस प्रत्यक्ष मानव रूप ने भूमि पर जिस जगह आकर मानव जाति को मार्गदर्शन प्रदान किया, उस स्थान के स्मरणार्थ कैलास तीर्थ यात्रा भी शुरू हुई।

गुरु परम्परा की वन्दना करने वाला यह श्लोक ध्यान दें:
सदाशिवसमारम्भां शंकराचार्य मध्यमां
अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्परां।
यह श्लोक सदाशिव से लेकर शंकराचार्य तक और फिर हमारे अपने आचार्य तक की परम्परा को नमन करता है।
शंकराचार्य द्वारा रचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र प्रसिद्ध है। वे वाणी द्वारा और मौन माध्यम- दोनों से शिष्यों को उपदेश देकर पराविद्या प्रदान करने वाले परमगुरु थे।
हठयोगप्रदीपिका आदियोगि आदिनाथ की स्तुति से आरम्भ होती है:
श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या ।
विभ्राजते प्रोन्नतराजयोगमारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥

यह परम्परा है कि सदाशिवमूर्ति से पंचमुख साधना सम्प्रदाय (तत्पुरुषं, अघोरं, सद्योजातं, वामदेवं, ईशानं) का उद्गम हुआ।

“स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।”
(पतंजलि योगसूत्र 1:26)
अर्थ: वह (ईश्वर) समय के प्रभाव से कभी भी विभाजित नहीं होता, इसलिए वह सभी पूर्व गुरुओं का भी गुरु है।
कालेन – काल के द्वारा
अनवच्छेदात् – सीमारहित होने के कारण – विभाजित नहीं होता – जिसकी देश-काल परिमिति न हो – सनातन – नित्यनूतन – अज – अजैकपाद – अकाय – निराकार – निरवयव
स – वह (ईश्वर)
अपि – भी
पूर्वेषां – सभी पूर्वगुरुओं के
गुरुः – गुरु है .
वह नित्य, अनंत, अकाय, निराकार, निरवयव, अज और अजेय है। वह पराविद्या और अपराविद्या के परमगुरु हैं।

वह वैद्यनाथ/ वैद्येश्वर/वैत्तीश्वर हैं, जिन्होंने 18 सिद्धों में से धन्वंतरि और अगस्त्य महर्षि को प्रेरित किया। उन्होंने परशुराम को धनुर्वेद और अगस्त्य महर्षि को मर्मविद्या सिखाई। (केरल में कलरी (अखाडे) हैं जिनमें दक्षिण के अखाडों में अगस्त्य की परंपरा और उत्तर में परशुराम के संप्रदाय का अनुसरण किया जाता है। कलरी के अखाडे में छह आधार/सीढ़ियों वाले चबूतरे पर शिवलिंग को स्थापित कर उपासना करने की परंपरा आज भी है।) वह नटराज हैं – नृत्य, वाद्य, नाट्य और संगीत की कलाओं के स्वामी। उन्होंने महेश्वर सूत्र के माध्यम से पाणिनि को संस्कृत व्याकरण ग्रंथ रचना के लिए और तमिल भाषा के अध्ययन के लिए अगस्त्य को प्रेरित किया।

शिवरात्रि :
माया की कालरात्रि को नष्ट करने और अज्ञानता के अंधकार को दूर करने के लिए श्रीपरमेश्वर ने ज्योति लिंगरूप में और स्थूल-सूक्ष्म कारण शरीरों में प्रत्यक्ष शरीर (दिव्यदेह) को स्वीकार किया। इस संदर्भ को याद करने के लिए हम महाशिवरात्रि मनाते हैं। त्रिभुवन में सनातन धर्म (वेद) देने वाले समयों के अनुसार करुणामूर्ति परमशिव की उपासना करने वाला दिव्य दिन! परमप्रेम के मूर्ति, करुणावारिधि भोलेनाथ भगवान शिव की महिमा के बारे में लोगों को बताने, उन्हें सनातन धर्मशास्त्र के बारे में जागरूक करने के लिए और उन्हें कर्तव्यपरायण बनाने केलिए ऋषियों ने चुना है यह दिन।
 
 

शिवरात्रि का महत्व:

प्रकृति की माया, अविद्या, और अज्ञानांधकार को दूर करने के लिए ज्ञानज्योति प्रदायक परमेश्वर ज्योति लिंगरूप में और दिव्य रूपों में प्रत्यक्ष हुए इस संदर्भों को याद करने का दिन है शिवरात्रि। यह गुरु परम्पराओं और सनातन धर्म विद्या की स्थापना दिन है।

श्रीपरमेश्वर, गुरु परम्पराएं, और सनातन धर्म – इन सभी की उपासना करने के लिए इससे अच्छा दिन नहीं है। इस दिन का आचरण साधक जीवन में महान है। सनातन धर्मी लोगों द्वारा मनाए जाने वाले पुण्य दिनों में शिवरात्रि का सबसे अधिक महत्व है। महार्षियों ने महाशिवरात्रि व्रत को व्रतों का चक्रवर्ती राजा घोषित किया है।

1. माया को मिटाने के लिए मायातीत महेश्वर ही सक्षम है, यह बात जीवों को याद दिलाती है। “मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम्” (श्वेताश्वतर उपनिषद, अध्याय 4, मंत्र 10)

2. शिवरात्रि सनातन धर्म में एकेश्वर दर्शन को सशक्त करने वाला पुण्य दिन है। (एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।)

3. अज्ञानता को दूर करने वाला ज्ञान प्रदान करके सभी जीवों को आत्मबोध में लाना और उन्हें भगवान बनाना, यह परमेश्वर की महान कृपा का प्रमाण है। शिवरात्रि इसी कृपा को याद करने का दिन है।

4. प्रेममूर्ति, मंगलदायक, और करुणावरिधि परमशिव न केवल ज्ञान प्रदान करते हैं, बल्कि सनातन धर्म की महान आर्ष गुरु परम्परा के संस्थापक भी हैं। उन्होंने महारुद्र के रूप में कारणलोक में, शिवशंकर ऋषि के रूप में सूक्ष्म लोक में, और दक्षिणामूर्ति या आदिनाथ के रूप में स्थूल लोक में सनातन धर्म (वेद) प्रदान किया। सदाशिव से ही गुरु परम्परा की शुरुआत हुई। आदिगुरु परमशिव ने गुरु परम्परा के माध्यम से अपना दायित्व निभाया और योगियों के अंतर्दर्शन के माध्यम से अनवरत ज्ञान प्रदान करते रहे और आज भी कर रहे हैं। श्रीपरमेश्वर, उनकी महाकृपा, और सनातन धर्म ज्ञान की प्राप्ति को याद करने का दिन है महाशिवरात्रि। किसी अन्य पुण्य दिन में इतनी विशेषताएं नहीं हैं।

5. श्रीपरमेश्वर के कारणलोक में कारणाग्निपर्वत के रूप में पहली बार प्रत्यक्ष होने के इस संदर्भ को याद करने के लिए बाद में शिवलिंग आराधना की परंपरा शुरू हुई। इसी के साथ अंतरिक और बाह्य ज्योति में और अग्नि में ईश्वर की उपासना और आराधना करने की परंपरा भी शुरू हुई।

 

(शेष भाग अगले अध्याय में)