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शिवगिरि और अरुविप्पुरम हराम! मत परिवर्तन केंद्र हलाल!

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लेख 5

पिछले फेसबुक पोस्टों को पढ़ते समय कुछ लोगों ने चिंता जताई है कि आम पाठकों को यह गलतफहमी हो सकती है कि “ई.एम.एस. श्री नारायण गुरु की विचारधारा के अनुयायी थे।”

मुख्यमंत्री द्वारा गुरुदेव की समकालीन प्रासंगिकता पर दिए गए बयान पर मैंने सहमति व्यक्त की, यह भी कुछ अन्य लोगों के लिए आपत्ति का कारण बन गया। मैं उनसे केवल यही अनुरोध कर सकता हूँ कि वे पहले से प्रकाशित लेखों (1 से 4 तक) को शुरुआत से ध्यानपूर्वक पढ़ें।
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श्री नारायण गुरु और उनके द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए सनातन धर्म के प्रति ई.एम.एस. को कोई सहानुभूति या ममता नहीं थी, इस तथ्य का उपर्युक्त लेखों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था। ई.एम.एस. ने गुरुदेव की महानता को कम करके दिखाने की भी कोशिश की। लेकिन यहाँ कुछ विरोधाभास हैं जिनको मैं उजागर करना चाहता हूँ। निम्नलिखित दो मुद्दों पर मैं पूरी तरह ई.एम.एस के कथनों का समर्थक हूँ।

1. गुरुदेव का सनातन धर्म से अभेद्य संबंध (“सच्चा हिंदू”, “वेदांती”, “आर्ष संदेश के प्रचारक”, “शंकर दर्शन के व्याख्याता” के रूप में) ई.एम.एस. ने स्वीकार किया था।
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लेकिन आज के मार्क्सवादी पार्टी के नेता दावा करते हैं कि गुरुदेव हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं थे।

2. गुरुदेव ने सनातन धर्म का नहीं, बल्कि उसमें आई रूढ़िवादिता और ऊँची जातियों के सांस्कृतिक वर्चस्व का विरोध किया था। यह सच्चाई ई.एम.एस. भली-भाँति समझते थे।
(“हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों और वेदांत दर्शन के आधार पर ही श्री नारायण गुरु ने रूढ़िवादिता को चुनौती दी थी।” – ई.एम.एस.)
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लेकिन अब मुख्यमंत्री समेत पार्टी के वर्तमान नेता गलत प्रचार कर रहे हैं कि गुरुदेव ने “सनातन धर्म को नकार दिया और उसे चुनौती दी।” पार्टी के नेताओं के लिए “सनातन धर्म” शब्द ही अश्लील हो गया है।
इन दोनों में से कौन-सा सही है? यह तो सभी मानेंगे कि सनातन धर्म के सुधारक के रूप में गुरुदेव का जो चित्रण ई.एम.एस. के लेखों में मिलता है, वही सच्चाई है। श्री नारायण गुरु के ग्रंथों और उनके जीवन का अध्ययन करने वाले किसी भी व्यक्ति को यह स्पष्ट रूप से समझ में आएगा। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं। स्पष्ट है कि आजकल के पार्टी नेताओं का दृष्टिकोण वास्तविकता को समझे बिना, अज्ञता के कारण अपनाया गया है। अन्यथा, हमें यह मानना पड़ेगा कि ये नेता सच को छुपाकर, जानबूझकर झूठा प्रचार करने वाले पार्टी कार्यकर्ता हैं।

हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं है कि श्री नारायण गुरु के बारे में ई.एम.एस. की सभी व्याख्याओं से मैं सहमत हूँ। हिंदू धर्म और आध्यात्मिकता के प्रति ई.एम.एस. की घृणा के कारण, गुरुदेव की शिक्षाओं को सीमित करने और तोड़-मरोड़कर पेश करने के वैचारिक प्रयास ई.एम.एस. ने भी किए थे।

ई.एम.एस. द्वारा प्रस्तुत इन विकृत विचारों को मुख्यमंत्री अब नकार रहे हैं। यदि यह सदुद्देश्य से किया गया है, तो यह स्वागत योग्य है।
निम्नलिखित तीन मुद्दों पर मुख्यमंत्री का रुख ई.एम.एस. के रुख से अलग है, –
1) वर्तमान काल में गुरुदेव की प्रासंगिकता,
2) गुरु को केवल एक जातिगत नेता के रूप में चित्रित करने की प्रवृत्ति,
3) शिवगिरि तीर्थयात्रा के प्रति नजरिया, और वैक्कम सत्याग्रह के महत्व को अनदेखा करना —इन मामलों में, मैं पिणरायि विजयन के दृष्टिकोण से सहमत हूँ।

ई.एम.एस के अनुसार ‘श्रीनारायणन’ कौन थे?
1. श्री नारायण गुरु और उनके संदेश आज प्रासंगिक नहीं हैं—ई.एम.एस.
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“गुरु और उनके संदेश आज भी प्रासंगिक हैं, गुरुदेव समूचे केरल का मार्गदर्शन कर रहे हैं।”—पिणरायि विजयन
ई.एम.एस. ने लिखा था: “श्रीनारायणन आधुनिक केरल के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले अतिकाय हैं। लेकिन यह कहना कि उनके संदेश आज भी प्रासंगिक हैं और केरल के भविष्य को दिशा दे रहे हैं—इत्यादि से मैं सहमत नहीं हूँ।”
(ई.एम.एस. की संपूर्ण रचनाएं—संख्या 94, पृष्ठ 36) (संदर्भ प्रमाण के लिए स्क्रीनशॉट देखें)
ई.एम.एस. ने अपनी कई लेखों में उनके लिए “श्रीनारायणन” शब्द का उपयोग किया, जबकि आमतौर पर सभी उन्हें “गुरुदेव” कहकर संबोधित करते हैं।

2. 1995 में, ई.एम.एस. ने शिवगिरि तीर्थयात्रा सम्मेलन का उद्घाटन करने का निमंत्रण ठुकरा दिया।
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2025 में, पिणरायि विजयन ने उसी सम्मेलन का उद्घाटन किया।
अन्य कठिनाइयों के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर ई.एम.एस. उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। 15 जनवरी, 1995 को देशाभिमानी साप्ताहिक में लिखे एक लेख में उन्होंने कहा: “पारंपरिक रूप से इस वर्ष भी शिवगिरि तीर्थयात्रा बड़े धूमधाम से मनाई गई। इसके उद्घाटन के लिए मुझे आमंत्रित किया गया। मुझे यह लगा कि मुझे इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं करना चाहिए।” यह संदर्भ है “श्रीनारायण संदेश: तीन चेहरे” लेख का। (ई.एम.एस. की संपूर्ण रचनाएं, संख्या 94, पृष्ठ 34)

3. ई.एम.एस शिवगिरि तीर्थयात्रा में भाग लेने को अविवेकपूर्ण मानते थे .
“श्रीनारायण आंदोलन और तीर्थयात्रा के आयोजक या वक्ता के रूप में आम जनता के सामने मुझ जैसे नेता का आना अविवेकपूर्ण होगा।” (ई.एम.एस. की संपूर्ण रचनाएं, संख्या 94, पृष्ठ 38)

4. शिवगिरि में ही नहीं, उससे पहले अरुविप्पुरम शिवलिंग प्रतिष्ठापन शताब्दी महोत्सव (1988) के लिए भी ई.एम.एस. को आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे नहीं गए।
“यदि मैंने भाग लिया होता, तो मुझे गुरु के शिवलिंग प्रतिष्ठापन के साथ सहमत माना जाएगा। चूंकि मुझे इससे सहमति नहीं है, इसलिए मैंने अस्वीकार कर दिया” – यह कारण था जो उन्होंने दिया।

5. “श्रीनारायण विचारधारा पिछड़ी या पुराणपंथी हैं!” – ई.एम.एस.
अरुविप्पुरम प्रतिष्ठापन शताब्दी महोत्सव के दौरान ही, 15 फरवरी 1988 को लिखे गए अपने लेख में ई.एम.एस. ने श्रीनारायणन की विचारधारा को “पिछडेपन की ओर उन्मुख” या समाज को “पीछे की ओर खींचने वाली” बताया।
शिवगिरि और अरुविप्पुरम हराम; मत परिवर्तन केंद्र हलाल!!!
लेकिन यही ई.एम.एस. 1957 में मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रसिद्ध इस्लामिक धर्मांतरण केंद्र पोन्नानी के मौनत्तुल इस्लाम सभा का दौरा करने गए। यह वही संस्था है जिसने माप्पिला विद्रोह के दौरान जबरदस्ती इस्लाम में शामिल किए गए हिंदुओं का मज़हबी परिवर्तन करवाया था। “पोन्नानी जाकर सुन्नत करवाओ, टोपी पहनो” जैसे वाक्य केरलम में आमतौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं, और ये सब इसी संस्था से जुड़े हुए हैं। इस्लामी मतांतरण को पार्टी और सरकार का समर्थन प्राप्त है—यही संदेश ई.एम.एस. ने इस यात्रा के माध्यम से दिया।

याद रखिए कि यही ई.एम.एस. शिवगिरि और अरुविप्पुरम जाने से कतराए थे, बल्कि उन्होंने इसे “अविवेकपूर्ण” करार दिया था। जब अरुविप्पुरम और शिवगिरि सम्मेलनों में उन्हें आमंत्रित किया गया, तब वे मुख्यमंत्री नहीं थे। फिर भी, उन्होंने इसमें भाग लेना अविवेकपूर्ण माना। इसे उनकी आइडियोलॉजिकल (विचारधारा संबंधी) रवैये के रूप में देखा जा सकता है।

लेकिन केरल के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने एक ऐसे मतांतरण केंद्र का दौरा करने में कोई अनुचितता या अविवेक नहीं देखा—जहां अन्य संप्रदायों के लोगों को इस्लाम में परिवर्तित किया जाता था।

ई.एम.एस. ने वहाँ के विज़िटर्स डायरी में लिखा: “हम स्वैच्छिक मतांतरण के विरोधी नहीं हैं।” साथ में यह उपदेश भी – “ध्यान रहे कि तुम्हारी गतिविधियों के कारण लोगों में स्पर्धा या द्वेष न भड़क उठे।” और अंत में वे यह शुभकामना भी लिखना न भूले – “मेरी इच्छा है कि यह संस्था निरंतर अभिवृद्धि को प्राप्त हो!”
हाल ही में प्रकाशित पी. जयराजन की पुस्तक “केरलम, मुस्लिम राजनीति, राजनीतिक इस्लाम” (P. 264) में भी इस संदर्भ का उल्लेख किया गया है।
6. “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास” नामक पुस्तक में ई.एम.एस. ने श्री नारायण गुरु
सहित हिंदू आध्यात्मिक आचार्यों के ईश्वर-दर्शन की आलोचना की है। उन्होंने मार्क्स का उल्लेख करते हुए व्यंग्यात्मक रूप से लिखा:
“जिस मनुष्य को प्रकृति का अधिपति बनना चाहिए था, वह घुटने टेककर वानर हनुमान और शबला गाय की पूजा करता है। यह मनुष्य के पतन का स्पष्ट प्रमाण है। इसे हम अनदेखा नहीं कर सकते।” यह व्यंग्य श्री नारायण गुरु सहित हिंदू आध्यात्मिक आचार्यों से संबंधित भाग में लिखा गया है। गणपति, हनुमान आदि के चित्रों के साथ यह टिप्पणी दी गई थी। याद रखें कि गणपति की स्तुति करते हुए श्री नारायण गुरु ने “विनायकाष्टकम्” नामक एक कृति भी रची थी।

(पुस्तक के पुराने संस्करण में से लिया गया स्क्रीनशॉट देखें। हालांकि, इस पुस्तक के नए संस्करणों में यह चित्र अब उपलब्ध नहीं है।)
गणपति को मिथक अथवा मनगढ़ंत कहानी बताकर विवाद खड़ा करने वाले स्पीकर शमशीर और अन्य पार्टी के अन्य युवा नेता, इसी दार्शनिक आचार्य की कही बातों को दोहरा रहे थे, उन्ही के हैंदव-विरोधी दृष्टिकोण का अनुसरण कर रहे थे। लेकिन इन नेताओं की आत्मवंचना और दोगलेपन को पहचानना, और कुछ वर्गों को प्रसन्न करने के पीछे उनके विशेष उद्देश्य को समझना आम जनता के लिए जरूरी है। इन “नास्तिक-भौतिकवादी” नेताओं के लिए इस्लाम के सिद्धांत विज्ञान के आधार पर प्रमाणित हैं! अंधविश्वास उन्मूलन, आचार निंदा, महिला संरक्षण, समान न्याय, समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, जातिवाद विरोध, प्रगति, सुधार, और नवजागरण जैसे मूल्य और विचार केवल हिंदू धर्म के साथ जोड़े जाने की प्रवृत्ति कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं में देखी जाती है। उनका यह मानना है कि ये मूल्य अन्य समुदायों पर लागू नहीं होते! व्यंग्य और अपमान हमेशा हिंदू ईश्वर प्रतीकों, हिंदू आचार्यों, सनातन धर्म और हिंदुओं के लिए ही आरक्षित किया गया है, तब भी और अब भी!

 

जब कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक के लिए देश की सभी राज्य सरकारों ने योगदान दिया था, तो “इस दकियानूसी परियोजना के लिए मेरी सरकार एक पैसा भी नहीं देगी” यह घोषणा करने वाले एकमात्र मुख्यमंत्री थे ई.एम.एस। लेकिन दूसरे धर्मों के प्रति दृष्टिकोण – विशेष रूप से इस्लाम के प्रति दृष्टिकोण – पर ध्यान दें।. 
 
कलेक्टर की अनुमति के बिना ही कहीं भी मुस्लिम मस्जिदों और मदरसों का निर्माण और मरम्मत करने की अनुमति 1957 में ही ई.एम.एस. मंत्रिमंडल ने दे दी थी। उस समय जो कानून था, उसके अनुसार ऐसा करना संभव नहीं था। लेकिन टिप्पू के आक्रमण में ध्वस्त ऐतिहासिक तळि महादेव क्षेत्रं नामक मंदिर के पुनर्निर्माण की बात आई तो राज्य सरकार और सीपीएम ने इसके खिलाफ कड़ा रुख अपनाया। मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए पहल करने वाले केळप्पाजी को अत्यंत घिनौने शब्दों के प्रयोग से कम्युनिस्ट नेताओं ने अपमानित किया। “जिस पत्थर पर कुत्ते ने मूता, उस पर चंदन का लेप लगाने वाला केळप्पा” – यह था मंदिर के पुन:प्रतिष्ठापन के खिलाफ़ उठाया गया अपमानजनक नारा।

पालक्काड और मलाप्पुरम ज़िलों की सीमा पर स्थित पुलामंतोल में मस्जिद की नींव रखने वाले ई एम एस थे। मलाबार के कुख्यात “माप्पिला हाल इळक्कं” कहे जाने वाले मज़हबी उन्माद को प्रोत्साहित करने वाले “मलाप्पुरम नेर्चा” पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। प्रगतिवादी मुस्लिमों के विरोध को नजरअंदाज करते हुए ईएमएस सरकार ने इस प्रतिबंध को हटा दिया। राज्य सरकार ने मुस्लिम समुदाय के शांतिपूर्ण नेताओं द्वारा दी गई चेतावनियों को भी नजरअंदाज किया। जिहादियों को उत्साहित करने वाले और अंधविश्वास से भरे इन आयोजनों को नकारात्मक रूप से मूल्यांकित किया गया है। “काफ़िरों के खिलाफ संघर्ष में शहीद होने वालों” के स्मृति समारोह के रूप में इन आयोजनों को मनाया जाता है। इन स्मरणोत्सवों के आयोजन ने इस्लामिक कट्टरवाद को मजबूत किया। यह मुद्दा वामपंथी विचारधारा के सहयात्री हमीद चेंदमंगलूर जैसे व्यक्तियों द्वारा भी उठाया गया है।

मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियाँ हमेशा तैयार रहती थीं। मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद और पाकिस्तान की माँग का तात्त्विक रूप से समर्थन करने वाली

एकमात्र राजनीतिक पार्टी अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी थी। पार्टी के विभाजन के बाद भी दोनों पक्ष संगठित अल्पसंख्यक वोटबैंक के तुष्टीकरण पर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते रहे। मुस्लिमों को खुश करने के लिए इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने के लिए व्यापक प्रयास किए गए। इस्लामिक हमलों और मुस्लिम हमलावरों को सफेद झूठ से ढकने का दृष्टिकोण आज भी जारी है। हैदर, टिपू जैसे मुस्लिम लुटेरों द्वारा मलाबार में किए गए लूट, हत्याएँ, मंदिरों को ध्वस्त करना, बलात्कारी मतांतरण, महिलाओं और बच्चों समेत गैर-मुसलमानों को गुलाम बनाना, इन सबको छिपाया गया। माप्पिला विद्रोह को किसान विद्रोह के रूप में चित्रित करना एक और उदाहरण है। 1921 के माप्पिला विद्रोह का कड़ा सामना करने वाले और देर से ही सही, हिन्दू समुदायों को बचानेवाले हिचकॉक का स्मारक हटाने का आंदोलन भी कम्युनिस्ट पार्टियों ने आयोजित किया था। 1967 में ई.एम.एस. सरकार के दौरान, ई.के. इम्बिचीबावा, जो कि परिवहन मंत्री थे, ने इस स्मारक को तोड़कर वहाँ केएसआरटीसी का एक प्रतीक्षालय बना दिया। अब संस्थाओं को माप्पिला विद्रोहियों के नाम देना, उनके लिए स्मारक और संग्रहालय बनाना जैसे कदम उठाए जा रहे हैं।

इस्लामी तुष्टीकरण के सौ से अधिक उदाहरणों को ई.एम.एस. के कार्यकाल में उजागर किया जा सकता है। शिक्षा में प्रवेश और सरकारी स्कूलों में मुस्लिमों के लिए विशेष आरक्षण, शुक्रवार को स्कूलों में नमाज के लिए अवकाश देने का प्रावधान, मदरसों और मुस्लिम शैक्षिक संस्थानों के लिए विशेष प्रावधान, हज सब्सिडी, इस्लामी इतिहास और संस्कृति को पाठ्यक्रम में शामिल करने की शुरुआत – ये सभी ई.एम.एस. के शासनकाल में हुए थे। पाकिस्तान के पक्ष में सार्वजनिक रूप से “दस आने की छुरी खरीदूँगा, खोपकर लूँगा पाकिस्तान” “लड़कर लिया पाकिस्तान, हँसकर लेंगे हिंदुस्तान” जैसे नारे लगाने वाली मुस्लिम लीग को सम्मान देकर शासन में लाने का श्रेय ई.एम.एस. को जाता है। अविभक्त मुस्लिम लीग का सपना था कि मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों को शामिल करके “माप्पिलास्थान” बनाना है।

इस को भी 1969 के मलाप्पुरम जिले के गठन के माध्यम से ई.एम.एस. ने साकार किया। ये सभी मजहबी तुष्टीकरण की मिसालें हैं, और इन्हीं योजनाओं को जारी रखा, केरल का शासन करने वाले विभिन्न गठबंधनों ने।

1946 में मलाप्पुरम के कोट्टप्पड़ी में पाकिस्तान के पक्ष में जोरदार भाषण देने वाले मुस्लिम लीग नेता (के.एम. सीदी साहिब) के भाषण के बारे में सी.पी.एम. नेता पालोळि मुहम्मद कुट्टी ने पी.जयराजन की पुस्तक में शुभकामना संदेश में उल्लेख किया है। उस समय भी, मुस्लिम लीग की प्रचार गतिविधियाँ और जनसभाएँ मस्जिदों पर केंद्रित होती थीं। मुस्लिम लीग की घोर सांप्रदायिक-विभाजनवादी विचारधाराओं के कारण, कांग्रेस उन दिनों उसे सत्ता से कोसों दूर रखती थी। 1967-1969 के बीच मुस्लिम लीग को मंत्री पद देकर केरल की राजनीति में स्थान दिलाने का श्रेय वामपंथियों को जाता है।,” पालोळि मुहम्मद कुट्टी याद दिलाते हैं। यही नहीं पालोळि कमीशन अध्यक्ष यह भी कहते हैं कि मुस्लिम लीग का यह दावा कि बगैर उनके समर्थन के, कोई भी गठबंधन केरल में शासन नहीं कर पाएगा – इसके पीछे भी सीपीएम का ही हाथ है। लीग के साथ गठबंधन के फायदे का मूल्यांकन वे इस प्रकार करते हैं – इससे कम्यूनिस्ट पार्टी पर मज़हब का विरोधी होने का आरोप मिट जाएगा।

वामपंथी दलों द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण के अनेक उदाहरणों को पी.जयराजन ने अपनी पुस्तक “केरलम, मुस्लिम राजनीति, और राजनीतिक इस्लाम” (पृष्ठ 122, 123, 124, 125, 153, 154, 155, 156, 157, 158, 189) में “गर्व के साथ” याद किया है। जिन लोगों ने अपनी सामान्य बुद्धि को गिरवी नहीं रखा है, वे इन कार्रवाइयों को साम्प्रदायिक भेदभाव, तुष्टीकरण और दोगलापन कहते हैं। ऐसे राजनीतिक कदम जनता में असहायता, असुरक्षा की भावना, अन्य संप्रदायों के प्रति घृणा और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं। भारत का विभाजन भी इसी प्रकार की अंधी सांप्रदायिक तुष्टीकरण नीतियों का अंतिम परिणाम था।

हिंदुओं की "गलतफ़हमी" दूर करने की ज़रूरत नहीं है!

श्री नारायण गुरु और अन्य संतों द्वारा प्रतिपादित सनातन धर्म को मानने वाला हिंदू समाज ही कम्युनिस्ट पार्टियों की सदस्यता वाला मूल वर्ग रहा है। इसके बावजूद, इसी बहुसंख्यक जनता की उपेक्षा करके, गुरुदेव और उनके द्वारा प्रचारित सनातन धर्म का अपमान करने की प्रवृत्ति कुछ नेता आज भी जारी रखे हुए हैं। अत्यंत घटिया तरीके से सनातन धर्म के प्रवक्ताओं को अपमानित करने और हिंदू महिलाओं तक का अनादर करने के लिए पार्टी सचिव एम.वी. गोविंदन एक बार फिर उतारू हो रहे हैं! ये हमले किसी हिंदू संगठन के खिलाफ नहीं, बल्कि सीधे सनातन धर्म पर हैं!

हिंदू बहुल प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी का नेता कितनी बेशर्मी से लगातार ऐसी बयानबाजी करना, इसे “आश्चर्यजनक” ही कह सकते हैं। स्थानीय निकाय चुनाव और विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं। पार्टी के मजबूत गढ़ों में भी वोटों में गिरावट देखी जा रही है! इसके बावजूद, मुस्लिम तुष्टीकरण की इस खुली राजनीति और हिंदुओं के प्रति भेदभाव, अपमान व उपेक्षा को रोकने के लिए एम.वी. गोविंदन को टोकने या सलाह देने की हिम्मत रखने वाला पार्टी में कोई भी नेता नहीं है – यही केरल की सबसे बड़ी त्रासदी है!
शबरीमला के अनुभव से भी उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा। ऐसा क्यों है कि हिन्दुओं के बीच अपना धर्मविरोधी होने की छवि को वे सुधारना नहीं चाहते? हालांकि, कुछ मामलों में उनकी सतर्कता को नकारा नहीं जा सकता। “जमात-ए- इस्लामी के खिलाफ जो हम कह रहे हैं, वह इस्लाम या मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, ऐसा गलत समझा न जाए” एम.वी. गोविंदन ऐसा स्पष्टीकरण देना कभी नहीं भूलते! (समाचार, 24 दिसंबर 2024)। मुस्लिम भाइयों की भावनाओं को आहत न करने के लिए उनकी सतर्कता देखिए! गलतफहमी से बचने के उनके प्रयासों को गौर से देखिए! यह हर किसी को समझना और स्वीकार करना चाहिए!

(जारी)