पिछले दिन वर्कला शिवगिरि मठ के वार्षिक तीर्थाटन के अवसर पर आयोजित सम्मेलन में मुख्यमंत्री पिणराई विजयन का यह वक्तव्य ध्यान में आया है:
“श्री नारायण गुरु सनातन धर्म के प्रवक्ता या समर्थक नहीं हैं। उन्हें इस रूप में चित्रित करने के प्रयास यहाँ हो रहे हैं।”
इसके तुरंत बाद, “सनातन धर्म केवल वर्णाश्रम व्यवस्था है, और यह इस युग की अश्लीलता है,” ऐसा सीपीएम राज्य सचिव एम.वी. गोविंदन ने भी प्रस्तावित किया।
सनातन धर्म और श्री नारायण गुरु पर सकारात्मक संवादों का स्वागत है। लेकिन उससे पहले विनम्रतापूर्वक कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ!
(1) भारत में (केरल में भी) अधिकांश लोग हिंदू हैं। यह सभी को ज्ञात है कि हिंदू धर्म का असली नाम सनातन धर्म है। ऊँचे उत्तरदायित्व वाले पदों पर आसीन प्रमुख व्यक्तियों द्वारा इस नाम को ऐसे घृणित शब्दों में उल्लेख करना क्या नैतिक रूप से सही है?
यह याद रखें कि ऐसा कहने वाला एक ऐसी सरकार का मुखिया है, जिसे बहुसंख्यक हिंदुओं ने वोट देकर सत्ता में लाया है। एलडीएफ (वामपंथी जनतांत्रिक मोर्चा) को वोट देने वालों में भी बहुसंख्यक हिंदू ही हैं, और उनमें से अधिकांश हिंदू धर्म में आस्था रखते हैं।
जब सरकारी जमीन पर लगाए गए क्रॉस को जिला कलेक्टर ने हटाया, तो आपने कहा था, “क्रॉस ईसाई धर्म का प्रतीक है। उसे हटाने से विश्वासियों को जो दुख होता है, उसे ध्यान में रखना चाहिए था।”
लेकिन जब सनातन धर्म के बारे में ऐसी अपमानजनक टिप्पणी की जाती है, तो साधारण हिंदुओं को जो पीड़ा होती है, उसका आपको क्यों एहसास नहीं होता?
क्या आप यहाँ के हिंदुओं के भी मुख्यमंत्री नहीं हैं? क्या सभी हिंदू संघ परिवार संगठनों से जुड़े हुए हैं?
सत्ता में मौजूद पार्टी के राज्य सचिव ने सनातन धर्म को “अश्लीलता” कहकर सार्वजनिक रूप से आलोचना की है। क्या इस समुदाय का इस तरह अपमान किए जाने में मुख्यमंत्री और प्रमुख राजनीतिक नेता को कोई आपत्ती नजर नहीं आती? या आप हिंदुओं को ऐसा समाज मानते हैं जो कुछ भी सुनने और सहने के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देगा? क्या आपने हिंदुओं को इतना कमजोर समझ लिया है?
क्या “सनातन धर्म अश्लीलता है” कहने वाले पार्टी सचिव को यह एहसास नहीं है कि आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों और विधानसभा चुनावों में उन्हें हिंदुओं सहित सभी मतदाताओं से सीधे वोट मांगने की जरूरत पड़ेगी?
(2) ऐसे व्यंग्य पार्टी और सरकार को क्या लाभ पहुंचाते हैं? या फिर यह सब किसी का तुष्टिकरण करने के लिए किया जा रहा है?
(3) क्या केवल एक विशेष वर्ग के धार्मिक विश्वासों का मजाक उड़ाना सही है? क्या आप अन्य धर्मों और उनके विश्वासों के बारे में भी इसी तरह बोलने का साहस कभी दिखाएंगे?
सामान्यतः सनातन धर्म पर ये दोष आरोपित होते हैं और मैं इस दृष्टिकोण का स्वागत करता हूँ कि इन पर बहस की जरूरत है:
- श्री नारायण गुरु की शिक्षाओं का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं है,
- सनातन धर्म एक वर्णाश्रम व्यवस्था है।
इन आरोपों पर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए। आइए इस पर विचार-विमर्श करते हैं।
1) श्री नारायण गुरु के विचारों का सनातन धर्म से संबंध नहीं है?
जीवन और विचारों का गहराई से अध्ययन करके ही किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करना चाहिए।
गुरुदेव द्वारा प्रतिष्ठापित मंदिर, उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ, लागू की गई व्यवस्थाएँ, और स्थापित संगठन – इन सभी का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन्होंने सनातन धर्म के संदेश का ही प्रचार किया था। श्री नारायण गुरु उसी दर्शन के अनुसार जीवन रूपी उपासना का पालन करने वाले व्यक्ति भी थे अर्थात उनका जीवन ही सनातन धर्म की उपासना का माध्यम था।
बाद के समय में उभरी परंपरावादी विचारधाराओं को सनातन धर्म समझने की भूल ही मुख्यमंत्री और पार्टी सचिव के इतनी बड़ी गलतफहमी में पड़ने का कारण है। यह उनकी व्यक्तिगत समस्या नहीं है। ऐसी जानबूझकर की गई भ्रामक दुष्प्रचार हमारी समाज में गहराई तक फैला हुआ है। बहुत से लोग ऐसे ब्रेनवॉशिंग के शिकार हो चुके हैं।
लेकिन श्री नारायण गुरु के लिए “सनातन धर्म” एक पवित्र शब्द और एक गौरवमयी दर्शन था। “सनातन,” जो परमेश्वर का पर्याय है, और “सनातन धर्म” वाक्य, जो सर्वेश्वर (परमेश्वर) द्वारा प्रदान किये गये धर्म को दर्शाता है, वे उन्हें अत्यंत प्रिय थे।
इसका स्पष्ट प्रमाण है गुरुदेव का पल्लातुरुत्ती में आयोजित एस.एन.डी.पी. सम्मेलन को भेजा गया अंतिम संदेश।
“सनातन धर्म की ओर आओ” – पल्लातुरुत्ती एसएनडीपी सम्मेलन में भेजे गए अपने अंतिम संदेश में श्री नारायण गुरु ने धर्म बदलने की इच्छा रखने वालों से अनुरोध किया कि वे सनातन धर्म की ओर आएं, जो समस्त मानवता को एक मानता है।
स्पष्ट है कि श्री नारायण गुरु को ज्ञात था सनातन धर्म एक ऐसा दर्शन है जो मानवता को एक समान मानता है। न केवल यह, बल्कि इस बात में भी उन्हें कोई संदेह नहीं था कि वे और उनके गुरु परंपरा सनातन धर्म का ही भाग हैं। इसी तथ्य ने उन्हें “सनातन धर्म में आओ” का संदेश देने के लिए प्रेरित किया।
मतांतरण के संदर्भ में एसएनडीपी सभा में उस समय महत्वपूर्ण विचार-विमर्श और चर्चाएं हो रही थीं। इसे संदर्भित करते हुए, 1926 में हुई एसएनडीपी सभा की वार्षिक बैठक में गुरु देव ने जो संगठन संदेश भेजा था, वह इस प्रकार था। (गुरु देव का अंतिम संदेश )
“समुदाय संगठन और धर्म सुधार के बारे में आप गंभीरता से कुछ विचार कर रहे हैं, यह जानकर हमें बहुत खुशी हो रही है। लेकिन संगठन का उद्देश्य केवल एक विशेष जाति को शामिल करके एक समुदाय बनाना नहीं होना चाहिए। धर्म सुधार केवल किसी एक धर्म समूह को छोड़कर दूसरे धर्म समूह में शामिल होने का प्रयास बन कर सीमित नहीं रह जाना चाहिए। हमारा समुदाय संगठन सभी मनुष्यों को एक साथ जोड़ने वाला होना चाहिए। धर्म को विश्वास की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए और सभी परिष्कृत एवं संस्कार वाले समाज को स्वीकार्य होना चाहिए, और मनुष्यों को उत्तम आदर्श की ओर मार्गदर्शन करना चाहिए।”
“एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर – मानवता के लिए” यही सनातन धर्म है। हमें लगता है कि इस सनातन धर्म में विश्वास करने वालों को एक साथ जोड़ना हमारे संगठन के लिए सबसे उत्तम तरीका होगा। जो ऐसा मानते हैं कि धर्म परिवर्तन के बिना असमानताएँ और समस्याएँ समाप्त नहीं होंगी, उनके लिए “सनातन धर्म” को स्वीकार करना उनका धर्म परिवर्तन और स्वतंत्रता की घोषणा होगी। “
(कुमारन आशान द्वारा लिखित श्री नारायण गुरु की जीवनी में स्वामी आर्षज्ञानानंद द्वारा लिखित अंश से.)
मूर्कोत कुमारन द्वारा रचित जीवनी में – “परिशुद्ध हिन्दू धर्म के एक विशिष्ट संतान श्री नारायण गुरुस्वामी” (पृष्ठ 79) के रूप में गुरुदेव को संबोधित किया गया है।
कृपया पूरी पोस्ट पढ़ें।
आर्ष विद्या समाज के बारे में अधिक जानकारी के लिए: www.arshaworld.org
(जारी रहेगा)