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Sanathana Dharma – Response to Pinarayi Vijayan and MV Govindan by Aacharyasri KR Manoj ji – Part 4

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गुरुदेव “एक पूर्ण हिंदू!”, “वेदांती!!” “आर्ष संदेश प्रचारक!!!” – ईएमएस

गुरुदेव सनातन धर्माचार्य थे, लेकिन रूढ़िवाद के विरोधी!

सनातन धर्म x रूढ़िवाद

हिंदू धर्म के पतन के समय में, आर्ष संदेश और वेद-उपनिषद की विचारधाराओं के विरुद्ध, ब्राह्मणवाद (ब्राह्मण संप्रदाय) का उद्भव हुआ, जिसे आलोचक रुढ़िवाद (Conventionalism/Conservatism) कहते हैं। इस ब्राह्मणवाद ने सनातन धर्म सिद्धांतों को सीमित करने, विरूपित करने और विकृत रूप से चित्रण करने का प्रयास किया। स्वाध्याय की अनुपस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अज्ञता ही रूढ़िवाद का कारण बना।
आध्यात्मिक पतन, विचारों का प्रदूषण, अंधविश्वास, अनाचार, दुराचार, अत्याचार (सद्गुणों का विकृत रूप), जातिगत भेदभाव, जाति आधारित श्रेष्ठता का भाव, जातियों के बीच वैमनस्य और प्रतिस्पर्धा, जाति आधारित अभिजात्यता, जातिगत शोषण, जाति के आधार पर एकाधिकार, और भ्रष्ट विचारधाराओं की विकृतियां—ये सभी समस्याएं रूढ़िवाद से जन्म लेती हैं।
श्री नारायण गुरु ने सनातन धर्म के पक्ष में सभी प्रकार के रूढ़िवाद के विरुद्ध शांतिपूर्वक काम किया।
सनातन धर्म में परमेश्वर दर्शन, जीवन दर्शन, एकमानवदर्शन, एकलोकवीक्षण, अभेद दर्शन, और मंदिर संकल्प जैसे विषयों को रूढिवादियों ने तोड़-मरोड़कर पेश किया था। “आपके शिव को नहीं, मैं ने हमारे शिव को प्रतिष्ठापित किया है” – गुरुदेव के इस कथन का यहाँ पर विशेष महत्व है। इसका अर्थ यह नहीं है कि दो अलग-अलग शिव हैं। गुरुदेव ईश्वर तत्व से जुड़ी दो अलग-अलग अवधारणाओं की तुलना कर रहे हैं।

श्री नारायण गुरु ने वेद-उपनिषदों, योग विद्या, तंत्र विद्या, वेदांत और सिद्धांत जैसे सनातन धर्म के पराविद्या में वर्णित आर्ष गुरु परंपरा के परमेश्वर दर्शन
Sree-narayana-guru-samadhi
(परब्रह्म दर्शन) को स्वीकार किया। यही उनके “हमारा शिव” का वास्तविक स्वरूप है। उन्होंने स्पष्ट किया कि पुराणों, पौराणिक कथाओं, मिथकों, और कपटी ज्योतिषियों व ढोंगी पुजारियों द्वारा गढ़ी गई ईश्वर की कल्पनाएं न तो उनके विचारों का हिस्सा हैं और न ही सनातन धर्म का।

“पहले शिव आएं, फिर बाकी सब कुछ अपने आप आ जाएगा” – यही उनकी विचारधारा थी। सनातन धर्म के अवनति के काल में रची गई पौराणिक कथाओं में वर्णित देवता संकल्पनाओं को स्थापित करने से उन्होंने साफ मना कर दिया। उदाहरण स्वरूप, विभिन्न पुराणों में वर्णित दशावतार की प्रतिष्ठा को स्वीकार करने से उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि, उन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों को अवतार माना और उन पर स्तोत्र भी रचित किए।

उन्होंने यह घोषणा की कि पक्षी और मृगों की बलि से प्रसादित देवताओं की पूजा का परिणाम केवल दुख और क्लेशपूर्ण जीवन होगा (इस संदर्भ में “देव चिंतन” नामक गद्य प्रबंध देखें)। सेमिटिक धर्मों में यहोवा, अल्लाह जैसी सत्ता भी मृग-पक्षी बलि की मांग करती हैं, और यह बाइबिल, कुरान को पढ़ने वाले जानते हैं। यहूदी, ईसाई, इस्लाम धर्मों में ही नहीं, बल्कि हिंदू समाज में भी – जैसे कि केरल के कुछ कावु मंदिरों में – ऐसी कुप्रथाएँ थीं। इन कुप्रथाओं के साथ गुरुदेव ने कभी समझौता नहीं किया। न केवल उन्होंने अनाचार से भरे हुए अनुष्ठानों को अस्वीकार किया, बल्कि कुछ मूर्तियों को भी हटाने का प्रयास किया। इसके स्थान पर, उन्होंने सनातन धर्म के उच्चतर दर्शन के अनुसार आदर्श मानकों पर मंदिरों का निर्माण किया। मूर्ति प्रतिष्ठा से गुरुदेव का उद्देश्य लोगों को एकत्रित करना या सामान्य लोगों के लिए कोई पूजनीय वस्तु प्रदान करने का नहीं था। कृतयुग में बद्रीनारायण, त्रेतायुग में श्रीराम, द्वापरयुग में श्रीकृष्ण, और सभी कालों में आर्ष गुरु परंपराओं द्वारा उपासित परमेश्वर दर्शन की पुनर्स्थापना ही उनका दृष्टिकोण था। इस स्पष्ट दर्शन के आधार पर उन्होंने मंदिरों का निर्माण किया। गुरुदेव ने मज़हबी परिवर्तन को रोकने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने गलतफहमियों, प्रलोभनों और जातिवादियों के उत्पीड़न के कारण धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को वापस लाने के लिए पहल की। ये वास्तविकताएँ छिपाकर कुछ लोग श्री नारायण गुरु को उस समय के भ्रांतियों और विभिन्न पंथों के देवता संकल्पनाओं को स्वीकार करने वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हैं, जो कि पूर्णत: असत्य है।

श्री नारायण गुरु को उनके परमेश्वर दर्शन, आर्ष गुरु परम्परा, सनातन धर्म, और योग-वेदांत-सिद्धांत दर्शनों से अलग करने के प्रयास भी गलत हैं। समुदाय के आचार्य और सवर्णों के खिलाफ अस्पृश्यता निर्रमार्जन के लिए लड़ने वाले नेता के रूप में चित्रित करने के लिए भी कुछ लोग इच्छा रखते हैं! लेकिन सच्चाई यह है कि ये सभी श्रम विफल होंगे!

केरल से लेकर कश्मीर तक के स्थानों में सनातन धर्म के पक्ष से कार्मयोगविधि के अनुसार कार्य करने वाली आर्ष गुरु परम्पराओं की लंबी श्रृंखला में श्री नारायण गुरु एक प्रमुख नाम है। इन सभी ने सनातन धर्म के साथ नहीं, रूढ़िवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। सनातन धर्म और रूढिवाद के बीच के अंतरों को पहचानने में असमर्थता ही कुछ लोगों की दृष्टि की कमजोरी है। मुख्यमंत्री जैसे लोगों द्वारा गुरुदेव को सनातन धर्म का विरोधी और चुनौती देने वाला व्यक्ति घोषित करने का कारण उनकी यही दुर्बलता है।

दोहरे मानदंड!

इससे भी एक और दोहरापन झलकता है। इस्लाम और ईसाई समाजों में होने वाले सुधार प्रयासों को कभी भी राजनेता इस्लाम-विरोधी या ईसाई-विरोधी नहीं कहेंगे। इन समुदायों के सामाजिक सुधारकों को उनके धर्मों को चुनौती देने वालों या अपमानित करने वालों के रूप में चित्रित नहीं किया जाता, यह एक ध्यान देने वाली बात है। इन सुधारकों का जिक्र करते समय, वे हमेशा यह कहेंगे कि ये लोग अपने समुदायों में गिरावट के खिलाफ लड़ने वाले थे।
लेकिन जब बात हिंदू धर्म की आती है, तो उनका रवैया पूरी तरह से उल्टा होता है। वे सनातन धर्म के दृढ़ समर्थकों तक को हिंदू-विरोधी करार देंगे।

सामान्य समझ रखने वाले किसी व्यक्ति को यदि स्पष्ट सच्चाइयों के साथ सैकड़ों प्रमाण भी दिखाए जाएं, तो भी कुछ लोग उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे।
लेकिन, उनके राजनीतिक गुरु और सीपीएम के सैद्धांतिक आचार्य ई.एम.एस. नंबूदिरिपाड की बात को पिणराई विजयन और एम.वी. गोविंदन नकारने में सक्षम नहीं होंगे। इसलिए, इस संदर्भ में ईएमएस का उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है।

मार्क्सवादी सैद्धांतिक ई.एम.एस. नंबूदिरिपाड ने दर्ज किया था कि श्री नारायण गुरुदेव सनातन धर्म में मजबूती से टिके रहे और उसमें मौजूद गिरावटों के खिलाफ लड़े।

1) “परंपरावादियों के खिलाफ ही नवजागरण के आचार्यों ने संघर्ष किया था” – ई.एम.एस.
“बंगाल में राममोहन राय और विवेकानंद जैसे महान व्यक्तित्वों ने सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण में परंपरावादियों को चुनौती देते हुए आंदोलनों की शुरुआत की। इसी तरह, केरल में चट्टंपि स्वामी और नारायण गुरु जैसे आध्यात्मिक नेताओं ने भी यही कार्य किया।”
साथ में दी गई तस्वीर पर एक नजर डालें।
(ई.एम.एस. संपूर्ण कृतियां – संचिका – 42, पृष्ठ – 107)

2) गुरुदेव ने हिंदू धर्म में आए पतन के खिलाफ धर्म से जुड़े एक सामान्य दर्शन पर आधारित संघर्ष लड़ा था, जैसा कि ईएमएस ने “देशाभिमानी” पत्रिका में “ईएमएस की डायरी” शीर्षक वाले लेख में उल्लेख किया है। 27-04-1997 को प्रकाशित “वाग्भटानंदन की आत्मविद्या” लेख में, ईएमएस ने इस बात पर जोर दिया कि “हिंदू धर्म में आई इस अवनति के खिलाफ विद्रोह का झंडा श्री नारायण, चट्टंबी स्वामी, ब्रह्मानंद शिवयोगी और वाग्भटानंदन ने उठाया था।”

हालाँकि, समाजवादी दृष्टिकोण से ईएमएस इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि ये सभी संत हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों पर अडिग थे। वह आगे कहते हैं, “इन सभी महान विचारकों ने धर्म में आई इस गिरावट के खिलाफ संघर्ष किया था, जो एक सामान्य दर्शन पर आधारित था। हालांकि, यह कमजोरी श्री नारायण, चट्टंबी स्वामी, ब्रह्मानंद शिवयोगी और वाग्भटानंदन के दर्शन में भी मौजूद थी।”
यह दिलचस्प है कि ईएमएस ने श्री नारायण गुरु को हिंदू धर्म के सिद्धांतों के अनुसार अधोगति के खिलाफ लड़ने वाले व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया है, लेकिन वह इस बात को उनकी न्यूनता के रूप में मूल्यांकन करते हैं कि उनका दर्शन हिंदू धर्म के सिद्धांतों पर आधारित था।
चित्र 2 देखें (“वाग्भटानंदन की आत्मविद्या- देशाभिमानी साप्ताहिकी मे ‘ईएमएस की डायरी’-27/4/1997) संपूर्ण कृतियाँ 94 -पेज 61)
अब ज़रा सोचिए, ईएमएस के अनुसार, श्री नारायण गुरु ने हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि उसमें आई गिरावट और कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। बात बिल्कुल स्पष्ट है—उनकी लड़ाई हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं थी, बल्कि उसमें आई अधोगति के खिलाफ थी। और यह लड़ाई हिंदू धर्म के मौलिक दर्शन को आधार बनाकर लड़ी गई थी। अब सवाल यह है, यह लड़ाई आखिर किस उद्देश्य के लिए थी? स्वाभाविक रूप से, यह हिंदू धर्म में आई कुरीतियों और मौलिक धर्म सिद्धांतों के विरुद्ध जाने वाली प्रक्षिप्त अवधारणाओं को हटाकर धर्म शुद्धीकरण की प्रक्रिया केलिए और तत्द्वारा धर्म की रक्षा के लिए थी।

3) नवजागरण के आचार्यों ने ज्ञान-संपत्ति को अपने अधिकार में लाने वाले सांस्कृतिक एकाधिकारवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। – इ.एम.एस.
“विज्ञानसम्पदा” को तथाकथित पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए निषिद्ध करने वाले ब्राह्मणवादी वर्चस्व के बारे में ईएमएस ने “चट्टम्बी स्वामीकल” नामक लेख में संकेत दिया है। “उस समय की विज्ञानसम्पदा” अधिकांशतः संस्कृत में थी, जिसके कारण वह आम लोगों के लिए अप्राप्य थी। ज्ञान के इस एकाधिकारवाद के खिलाफ तुंचत्त रामानुजन ने पहल कदम उठाया।
पुराणेतिहासों को सरल मलयालम में तथाकथित पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने काम किया। लेकिन तुंचत्त रामानुजन भी वेदों और उपनिषदों को तथाकथित शोषित लोगों के लिए उपलब्ध कराने में असफल रहे। इस ज्ञान के एकाधिकारवाद के खिलाफ चट्टम्बी स्वामीकल ने काम करना शुरू किया। पुराणेतिहासों के अलावा वेदों को भी पढ़ने का अधिकार उत्पीड़ित
लोगों को है, यह स्थापित करने के लिए स्वामीकल ने काम किया। स्वामीकल द्वारा शुरू किए गए कार्य को वल्लतोळ् और ओएमसी ने पूरा किया।
” वल्लतोळ् और ओएमसी की रचनाओं के प्रकाशन के साथ चट्टम्बी स्वामीकल का सपना साकार हो गया” – यह ईएमएस द्वारा कहा गया है। क्या ज्ञान-संपत्ति से तात्पर्य हिंदू धर्मग्रंथों – वेदों और उपनिषदों और इतिहासों से नहीं है? क्या गुरु देव जैसे नवजागरण आचार्यों ने इस ज्ञान के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी या इसके एकाधिकारवाद के खिलाफ?
चित्र तीन और चार देखें देशाभिमानी वारिका (29/10/1995) ईएमएस की डायरी – चट्टंपी स्वामीकल – ) ईएमएस की संपूर्ण कृतियाँ 94 – पेज 44)

4) ” ‘उच्च’ जातियों के एक और सांस्कृतिक प्रभुत्व” (ध्यान दें, इस ऊँच-नीच का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं है!) को श्री नारायण गुरु ने तोड़ा, इसके बारे में ईएमएस का विवरण देखें।
ईएमएस आगे लिखते हैं:
“चट्टंपी स्वामी के समकालीन श्री नारायण ने “ऊँची” जातियों के एक और सांस्कृतिक प्रभुत्व को भी ध्वस्त कर दिया। स्वामिजी ने यह दिखाया कि सवर्णों के प्रभुत्व वाले मंदिर और पूजा स्थल अवर्णों के लिए भी हो सकते हैं। उन्होंने जो मंदिर स्थापित किए, उनके द्वारा शुरू किए गए श्री नारायण धर्म और इसे प्रचारित करने वाले संन्यासी, इन सबने केरल में एक सांस्कृतिक क्रांति ही पैदा कर दी। तिरुवितांकूर में श्री नारायण और चट्टंपी स्वामी की तरह, मलाबार में ब्रह्मानंद शिवयोगी और वाग्भटनंद ने भी आध्यात्मिकता से शुरू होकर आधुनिक राष्ट्रीयता तक पहुंचने वाले नवजागरण आंदोलनों के बीज बोए।”
चित्र 3 और 4 देखें। (29/10/1995, देशाभिमानी साप्ताहिक “ईएमएस की डायरी – चट्टंपी स्वामी” – ईएमएस सम्पूर्ण कृतियाँ 94, पृष्ठ 45)।
श्री नारायण गुरु जैसे नवजागरण आचार्य ने क्या सनातन धर्म के सिद्धांतों, वेद-उपनिषदों, मंदिर, मठ और संन्यास का विरोध किया?
नहीं, वे इन सबको जातिगत प्रभुत्व के रूप में इस्तेमाल करने वाली जातीय ऊंच-नीच की प्रणाली का विरोध कर रहे थे।
ईएमएस के अनुसार, इस बात में कोई संदेह नहीं कि गुरुदेव और उनके अनुयायियों ने हिंदू धर्म का नहीं, बल्कि ऊपरी जातियों या जातिगत वर्चस्ववादियों के विचारों और प्रणालियों का विरोध किया।

5) “गुरुदेव का कर्म मण्डल पूर्णतः वेदांतदर्शन पर आधारित था।,” ईएमएस ने कहा!
“आधुनिक काल में अखिल भारतीय स्तर पर स्वामी विवेकानंद और केरल में श्री नारायण गुरु ने सामाज के नैतिक पतन के खिलाफ और सांस्कृतिक नवोत्थान के लिए अपना वेदांतदर्शन इस्तेमाल किया। (15/1/1995 के देशाभिमानी पत्रिका के लेख में श्री नारायण संदेश: तीन चेहरे ‘ई. एम. एस. प्रस्तुत करते हैं। चित्र 5 देखें। ई. एम. एस. सम्पूर्ण कृतियाँ 1996-1998- संचित – 94, पृष्ठ संख्या 34।)”

6) “गुरु शंकरदर्शन का पालन करते हैं,” ईएमएस ने कहा
“आजकल के संन्यासी, शंकरदर्शन पर भाष्य लिखनेवालों में स्वामी विवेकानंद और नारायण गुरु – दोनों का अनुसरण करते हुए, शंकरदर्शन को मानवों के बीच की समानता का मूल तात्त्विक दर्शन मानते हैं,” ईएमएस इसे विरोधाभास मानते हैं। (“गलती परमेश्वर की है” – 7/7/1989 को लिखे लेख में) चित्र 6 देखें। (ई. एम. एस. सम्पूर्ण कृतियाँ – संचित 42: पृष्ठ 320)

7) ईएमएस के अनुसार, श्री नारायण गुरु एक सच्चे हिंदू धर्मानुयायी थे!
“कुछ राजनेता शिकायत करते हैं कि श्री नारायण गुरु को हिंदूवादी बनाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन ईएमएस इस बात को लेकर आश्वस्त थे।
‘श्री नारायण गुरु एक सच्चे हिंदू धर्मानुयायी थे। उनके क्रांतिकारी कार्यों में शिवलिंग की स्थापना और केरल के विभिन्न हिस्सों में बनाए गए मंदिरों का मुख्य स्थान था। उनके द्वारा स्थापित संन्यासी संघ आज भी सक्रिय है।’ चित्र 7 A, B देखें – देशाभिमानी साप्ताहिक – स्तंभ – ईएमएस की डायरी – 5/1/1997। लेख: ‘श्री नारायण गुरु और ब्रह्मानंद शिवयोगी,’ संग्रह – ईएमएस सम्पूर्ण कृतियाँ (संचिका 94, पृष्ठ 53, 54)।”

8) श्री नारायण गुरु को हिंदू पुनर्जागरणवादी बताया ईएमएस ने
अपने ग्रंथ “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास” में ईएमएस ने श्री नारायण गुरु की गतिविधियों का उल्लेख “हिंदू पुनर्जागरण राष्ट्रीयता का विकृत रूप” के 19वें अध्याय में किया है। हालांकि उन्होंने इसे “राष्ट्रीयता का विकृत रूप” कहकर आलोचना की, लेकिन उन्होंने गुरु को “हिंदू पुनर्जागरणवादियों” की श्रेणी में ही स्थान दिया।
इस वर्णन के साथ श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और श्री नारायण गुरु की तस्वीरें शामिल की गई हैं।
ईएमएस ने यह भी इंगित किया कि ये सभी व्यक्ति तीन क्षेत्रों में सक्रिय थे: सामाजिक सुधार, सांस्कृतिक नवजागरण और हिंदू पुनर्जागरण।
पृष्ठ संख्या – 134

“हालांकि यह सब सतह पर भिन्न दिखाई देता है, उसी समयकाल में एक और आंदोलन उभर कर आया, जिसने पूँजीपति वर्ग में राष्ट्रीयता की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आंदोलन था पुरानी हिंदू संस्कृति और धार्मिक विश्वासों का पुनर्जागरण का।
राम मोहन राय के नेतृत्व में उठे सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक नवजागरण आंदोलन में भी इसके कुछ तत्व देखे जा सकते हैं। हिंदू समाज, उसकी परंपराओं, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को आधुनिक बनाने में आगे बढ़ने वाले राम मोहन ने ईसाई धर्म के प्रचार और उससे जुड़े मिशनरियों की कार्यप्रणाली का कड़ा विरोध किया था, इसके बारे में चर्चा हो चुकी है। राम मोहन ने अपने उद्दिष्ट आधुनिकीकरण प्रक्रिया में प्राचीन हिंदू संस्कृति के कई तत्वों को शामिल करने पर भी ध्यान केंद्रित किया।”

इस प्रकार, सुधार पर अधिक जोर देते हुए, बंगाल में ब्राह्मो समाज और महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज जैसे सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक नवजागरण आंदोलन प्राचीन हिंदू संस्कृति को पुनर्जीवित करने का प्रयास करने वाले आंदोलनों के रूप में उभरे।”

वह आगे कहते हैं, “जातिव्यवस्था के तहत दीन-हीन स्थिति में पड़े समुदायों को प्राचीन हिंदू संस्कृति की संपत्ति सौंपते हुए, उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ऊंचा उठाने की कोशिश इन आंदोलनों ने की। उनके मामले में सामाजिक सुधार, सांस्कृतिक नवजागरण और हिंदू पुनर्जागरण तीनों एक साथ मिलकर काम कर रहे थे। (केरल में इसका सबसे स्पष्ट रूप श्री नारायण गुरु का आंदोलन था, जिन्होंने दलित हिंदू जातियों के लिए विशेष रूप से मंदिरों और संन्यासी मठों की स्थापना करके उनका उद्धार किया।)”
चित्र – 8 A (पुस्तक का कवर), 8 B (134), 8 C (135) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास – ई.एम.एस (पृष्ठ संख्या – 134, 135, अध्याय 19 – हिंदू पुनर्जागरण, राष्ट्रीयता का विकृत रूप)
9) गुरुदेव को आर्ष संदेश के प्रचारक के रूप में मानते हैं ईएमएस!
मंदिरों और मठों की स्थापना करते हुए, श्री नारायण गुरु ने आध्यात्मिक सोच के बीज बोए, और आर्ष संस्कृति का संदेश फैलाया, इन बातों में ईएमएस को कोई संदेह नहीं था।
“केरल इतिहास मार्क्सवादी दृष्टिकोण में” अपनी पुस्तक के ‘नवीन केरल: उत्पत्ति और विकास’ (पृष्ठ संख्या 193, 194) अध्याय में, ईएमएस लिखते हैं:
“कन्नूर से लेकर कोल्लम तक, केरल के विभिन्न हिस्सों में मंदिरों की स्थापना की गई, और वहां हिंदू धार्मिक परंपराओं के अनुसार ईयवा समुदाय के पूजारियों द्वारा पूजा की जाती थी। ब्राह्मण मंदिरों के जैसे ही वहाँ भी उत्सवों और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता था, और हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार सन्यासी जीवन जीने वाले ईयवा संन्यासी होते थे , और इस पूरे कार्य को प्रेरित करने वाले शक्ति-स्रोत श्री नारायण गुरु थे।” – ईएमएस ने श्री नारायण गुरु का मूल्यांकन इस तरह किया।
(गुरुदेव को केवल सामुदायिक आचार्य के रूप में सीमित करने वाले ईएमएस के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो सकते। गुरुदेव के पहले शिष्य शिवलिंग स्वामी,
सत्यव्रत स्वामी, चैतन्य स्वामी, धर्मानंद तीर्थ और अंतिम शिष्य आनंद तीर्थ सभी उस वर्ग से थे जिन्हें “सवर्ण” कहा जाता है। उन्होंने केवल ईयवा समुदाय से नहीं, बल्कि पुलयन और परया समुदायों से भी पुजारियों को प्रशिक्षित किया।)
ई.एम.एस. आगे लिखते हैं:
“स्वामिजी ने मंदिरों और मठों की नींव तो रखी, लेकिन उनके ऊपर जो इमारत खड़ी हुई, वह सामाजिक समानता की इमारत थी; उन्होंने आध्यात्मिक चिंतन के बीज बोए, लेकिन जो अंकुरित हुआ, वह सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का आंदोलन था; उन्होंने वैदिक संस्कृति का संदेश फैलाया, लेकिन यह संदेश श्रोताओं के कानों तक ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के पश्चिमी-आधुनिक संदेश के रूप में पहुंचा।”
ईएमएस अपने शब्दों में स्पष्ट रूप से यह अवलोकन करते हैं कि श्री नारायण गुरु वैदिक संदेश का प्रचार करने वाले व्यक्ति थे। मंदिरों में हिंदू धर्म की परंपराओं के अनुसार पूजा विधियों, उत्सवों और अन्य आयोजनों को संचालित किया जाना; और सन्यास के हिंदू शास्त्रों के अनुरूप काषाय वस्त्र धारण कर जीनेवाले संन्यासी—इन सबके पीछे प्रेरक शक्ति थे श्री नारायण गुरु, यह सच्चाई—यह सब कोई भी (यहां तक कि ई.एम.एस. भी) पहचान सकता था।
‘देशाभिमानी’ साप्ताहिक (27-9-1992) में “ई.एम.एस. की डायरी” कॉलम में “चतय दिन चिंतन” शीर्षक से लिखे लेख में भी ईएमएस ने दोहराया है कि श्री नारायण गुरु ने वैदिक संस्कृति का संदेश फैलाया। (ई.एम.एस. संपूर्ण कृतियां 1996-1998, संचिका – 94, पृष्ठ संख्या 15, 16 देखें।)

10) ईएमएस: श्री नारायण गुरु का संदेश ही मुझ पर प्रभाव डाला!
गुरुदेव के सामाजिक सुधार प्रयासों को स्वीकार करते हुए भी, ईएमएस ने उस सनातन धर्म को और उन आध्यात्मिक विचारों को अस्वीकार कर दिया, जिन पर गुरुदेव की प्रेरणा के स्रोत थे। साथ ही, मंदिर, मठ, संगठन और संस्थान जैसे उनके समाज सुधार के उपकरणों को भी ईएमएस ने नकारा। लेकिन यहां एक रोचक विरोधाभास है।
वही ई.एम.एस., जिन्होंने माना कि श्री नारायण गुरु ने वैदिक संस्कृति का संदेश फैलाया, वही मार्क्सवादी सिद्धांतकार जिन्होंने स्वीकार किया कि गुरुदेव के सामाजिक सुधार कार्य वेदान्तिक दर्शन पर आधारित थे, वही ई.एम.एस. जिन्होंने यह भी पहचाना कि गुरुदेव का कार्यक्षेत्र मंदिर, मठ और सन्यास था।
ऐसे ई.एम.एस. यह भी कहते हैं कि श्री नारायण गुरु के संदेश से प्रेरित होकर वे और उनके जैसे कई लोग राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय हुए।
” ‘उच्च’ जाति में जन्म लेने के बावजूद, श्री नारायण गुरु के संदेश को आत्मसात करते हुए, मुझ जैसे लोगों ने भी इस राज्य के सार्वजनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक आंदोलनों में प्रवेश किया।”
“श्री नारायण गुरु का संदेश: तीन रूप” शीर्षक लेख, ई.एम.एस. संपूर्ण कृतियां: 94, पृष्ठ 36 (चित्र संख्या: 10 देखें)।

11) अद्वैत दर्शन का प्रभाव: सामाजिक क्रांति की प्रेरणा – ई.एम.एस.
ई.एम.एस. स्वीकार करते हैं कि अद्वैत दर्शन ने न केवल उन्हें प्रभावित किया, बल्कि उनके जैसे कई लोगों को सामाजिक क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया। वे यह भी कहते हैं कि श्री नारायण गुरु और उनके अद्वैत दर्शन ने इस बदलाव में अहम भूमिका निभाई।
“श्री नारायण गुरु द्वारा तैयार की गई जमीन पर ही कम्युनिस्ट और कांग्रेसी सत्ता में आए,” यह टिप्पणी के. अरविंदाक्षन ने ‘मातृभूमि ‘ (अंक 22, पुस्तक 72) में की थी। इस टिप्पणी पर उठे सवाल का जवाब देते हुए

ई.एम.एस. ने विस्तार से लिखा:
“सवाल पूछने वाले के पहले प्रश्न का उत्तर मैंने पहले भी कई स्थानों पर दिया है। फिर भी, उनके लिए इसे संक्षेप में दोबारा समझाता हूं:
1) जिस तरह स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय स्तर पर और चट्टंपि स्वामी तथा ब्रह्मानंद शिवयोगी ने केरल में सामाजिक सुधार की दिशा में काम किया, उसी तरह—बल्कि उनसे भी अधिक व्यापक रूप से—श्री नारायण गुरु ने अद्वैत दर्शन का उपयोग जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय के खिलाफ किया। इस कारण, कम्युनिस्ट लोग उन्हें सम्मान देते हैं। इस लेखक सहित कई कम्युनिस्ट, श्री नारायण गुरु और अद्वैत दर्शन के प्रभाव के कारण सामाजिक क्रांतिकारी बने।” (ई.एम.एस. संपूर्ण कृतियां, पृष्ठ 174, संचिका-64, चित्र संख्या: 11 देखें।)

सनातन धर्म के प्रति विरोध भी समय के साथ समाप्त होगा!

श्री नारायण गुरु एक सनातन धर्म प्रवक्ता थे, इस तथ्य पर ई.एम.एस. को कभी कोई संदेह नहीं था। इस बात को स्पष्ट करने वाले कुछ प्रासंगिक अंश और प्रमाण यहां चित्रों सहित प्रस्तुत किए गए हैं। यह साफ है कि ईएमएस ने इस सच्चाई को पहचाना था। अब पार्टी का इस विषय पर मौजूदा रुख क्या है, इसे स्पष्ट करना पार्टी के नेताओं का कर्तव्य है। ईएमएस की विचारधारा को समझने के बाद, इसे सुधारने की सद्भावना नेताओं में हो, यही आशा है।

श्री नारायण गुरु को सनातन धर्माचार्य के रूप में प्रमाणित करने के लिए उनकी रचनाओं में हजारों प्रमाण उपलब्ध हैं। उनकी लिखी हर पंक्ति इसका जीवंत उदाहरण है। उनका जीवन और कार्य स्पष्ट साक्ष्य हैं। फिर भी, यह आश्चर्यजनक है कि कुछ लोग इस सच्चाई को विकृत करने और इसे नकारने की कोशिश कर रहे हैं।

जब मुख्यमंत्री और पार्टी के अन्य नेता जैसे जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यह कहते हैं कि “श्री नारायण गुरु ने सनातन धर्म को नकारा या चुनौती दी,” तो इससे कितने लोगों में भ्रम पैदा हो सकता है, इस पर विचार करना चाहिए। इस प्रकार के सभी भ्रमों को दूर करने और सच्चाई उजागर करने के लिए ई.एम.एस. की टिप्पणियों को यहां प्रस्तुत किया गया है।

ईएमएस की दृष्टि में श्री नारायण गुरु: सहमति और असहमति

श्री नारायण गुरु के प्रति ईएमएस द्वारा व्यक्त किए गए सभी विचारों से सहमत होना संभव नहीं है।
लेकिन यह कहना सत्य है कि गुरुदेव ने हिंदू दर्शन की नींव पर खड़े होकर सामाजिक बुराइयों के खिलाफ काम किया। हालांकि, ई.एम.एस. का मानना था कि श्री नारायण गुरु और उनका धर्म उनकी पार्टी की विचारधारा और हितों के विपरीत थे। जिस तरह आज कुछ नेताओं को सनातन धर्म “अश्लील” प्रतीत होता है, उसी तरह उस समय ईएमएस को श्री नारायण गुरु, उनका धर्म, शिवगिरि और तीर्थाटन अप्रासंगिक और विरोधाभासी लगते थे। (श्री नारायण गुरु को लेकर ईएमएस के कुछ विचारों से गहरी असहमति है, जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है।)

हालांकि, पिणराई विजयन के शिवगिरि भाषण में यह साफ दिखाई देता है कि पार्टी अपनी पुरानी धारणाओं को बदल रही है। यदि यह बदलाव ईमानदारी से किया जा रहा है, तो इसे खुले दिल से स्वीकार किया जाना चाहिए। जिस तरह पार्टी ने श्री नारायण गुरु और उनके धर्म के प्रति अपना दृष्टिकोण बदला है, उसी तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में सनातन धर्म और उसके विचारों के प्रति अंधविरोध भी समाप्त हो जाएगा।

संक्षेप में, सनातन धर्म और आर्ष गुरु परंपरा के प्रति विरोध का मूल कारण यह है कि जाति-व्यवस्था को गलत तरीके से सनातन धर्म समझ लिया गया। इसी गलतफहमी ने कुछ लोगों को सनातन धर्म का विरोधी और उन्मूलनवादी बना दिया। लेकिन संवाद और सही दृष्टिकोण के माध्यम से इन भ्रांतियों को दूर किया जा सकता है।

आर्ष विद्या समाज को इस बात का दृढ़ विश्वास है, क्योंकि यह एक ऐसा संगठन है जो आज विभिन्न प्रकार की मानसिक छद्मधारणाओं और ब्रेनवॉशिंग के खिलाफ निडर और निरंतर बौद्धिक संघर्ष कर रहा है।

“गुरु के संदेश को पूरे विश्व में फैलाने का आह्वान” – मुख्यमंत्री

पार्टी के पारंपरिक रुख से पूरी तरह भिन्न, मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने शिवगिरि भाषण में कहा कि श्री नारायण गुरु और उनके विचार न केवल आज के समय में प्रासंगिक हैं, बल्कि उन्हें विश्व के हर कोने तक पहुंचाना चाहिए। श्री नारायण धर्म (जो भी वह हो!) को पूरी दुनिया में फैलाने का यह आह्वान न केवल सराहनीय है, बल्कि गहन विचार और चर्चा का विषय भी है।

गुरुदेव द्वारा संस्कृत, तमिल और मलयालम में रचित स्तोत्र, गद्य और पद्य कृतियां, मंदिर प्रतिष्ठान, उनके द्वारा स्थापित संस्थान और संगठन, बनाए गए नियम, उनके कार्य, और उपदेशों पर आधारित “श्री नारायण धर्म” नामक आधुनिक स्मृति ग्रंथ, प्रमाणिक जीवनी—इन सबका निष्पक्ष अध्ययन करने वाला कोई भी व्यक्ति यह समझ सकता है कि गुरु का धर्म क्या है।

यह स्पष्ट है कि श्री नारायण धर्म वही सनातन धर्म है जिसे आर्ष गुरु परंपराओं ने प्रचारित किया। मुख्यमंत्री का यह आह्वान वास्तव में सनातन धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है।

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